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जैन न्याय में सप्तभंगी
१५७ जहाँ प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन किया गया है, वहाँ दूसरे भंग में पर्याय की दृष्टि से नित्यता के गुण का निषेध किया गया है। अतः ये दोनों कथन आत्म-विरोधी या व्याघातक नहीं हैं। एक ही रेखा दो भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से बड़ी और छोटी दोनों कही जाती है और ऐसे कथन में कोई विरोध नहीं होता है। यही स्थिति अपेक्षा भेद से प्रथम और द्वितीय भंग में भी है। वस्तुतः इन दोनों भंगों में क्रमशः विधि और निषेध रूप से प्रतिपादन होते हुए भी आत्म विरोध या व्याघातकता नहीं है। तृतीय भंग
"स्यादस्तिनास्ति च" यह सप्तभंगी का तीसरा भंग है। इस भंग में प्रथम स्यादस्ति और दूसरे स्यान्नास्ति भंग का संयोग है। लेकिन इसका कार्य उपयुक्त दोनों भंगों से भिन्न है। इसके कार्य को न तो केवल अस्ति भंग कर सकता है और न तो केवल नास्ति भंग हो । अतः यह एक स्वतन्त्र एवं नवीन भंग है। जिस प्रकार एक और दो पृथक् एवं स्वतन्त्र दो संख्यायें हैं पर इन दोनों के योग से वही अर्थ निकलता है जो कि एक स्वतन्त्र संख्या तीन का अर्थ होता है। परन्तु तीन नामक संख्या का अस्तित्व एक और दो दोनों से पृथक माना गया है। क्योंकि जो अर्थ तीन संख्या देती है वह न तो केवल एक और न केवल दो ही दे सकती है। इसी प्रकार तीसरा भंग यद्यपि अस्ति और नास्ति का संयोग है। परन्तु जिस उद्देश्य की पूर्ति प्रथम और द्वितीय भंग अलग-अलग करते हैं उसी उद्देश्य की पूर्ति तीसरा भंग भी नहीं करता। बल्कि नयी कथावस्तु को प्रस्तुत करता है। इसमें पहले विधि, फिर निषेध की क्रमशः विवक्षा की जाती है । इसमें स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से सत्ता और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से असत्ता का क्रमशः कथन किया गया है ; अर्थात् इसमें स्व की अपेक्षा सत्ता का और पर की अपेक्षा से असत्ता का एक साथ, किन्तु क्रमशः कथन किया गया है। यह कथन न तो केवल "अस्ति" ही कर सकता है और न केवल नास्ति ही कर सकता है; क्योंकि असंयुक्त उत्तर देना दूसरी बात है और संयुक्त उत्तर देना दूसरी बात।
अब यदि यह कहा जाय कि घट और पट इन दोनों को अलग-अलग कहने पर या एक साथ उभय रूप से कहने पर घट-पट का ही ज्ञान होता है; उससे कोई नवीन या भिन्न ज्ञान नहीं होता है। अतएव "स्यादस्ति"
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