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उपसंहार
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व्याख्यायित किया है । इसी प्रकार " स्यादस्ति च नास्ति" के सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि यह आधुनिक संभाव्यता के सिद्धान्त को तार्किक आधार प्रदान करता है और पाँचवाँ भंग "स्यादस्ति च अवक्तव्यम्” संभा - व्यता के क्षेत्र के अस्तित्व को निर्दिष्ट करता है । जबकि स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् संभाव्यता के क्षेत्र के अस्तित्व का निषेध करता है ।' यद्यपि प्रो० महलनबिस की यह व्याख्या जैन - सप्तभंगी को समीचीन नहीं है तथापि स्याद्वाद की तरफ वैज्ञानिकों के विचाराकर्षण में अवश्य सफल रही है ।
भौतिक विज्ञान के कुछ ऐसे सिद्धान्त हैं जिनको सप्तभंगी के भंगों में रखा जा सकता है । इस संदर्भ में प्रो० मेरी बी० मिलर और एच० रिचेनबैक का विचार द्रष्टव्य है । इन तार्किकों के अनुसार प्रकाश के तरंग और कणिका सिद्धान्त को जैन तर्कशास्त्र के भङ्गों में सूत्रबद्ध किया जा सकता है । कथञ्चित् प्रकाश तरंग है, उदाहणार्थ अपवर्तन और विवर्तन में, जिन्हें तरंगों के रूप में समझा जा सकता है । कथंचित् यह तरंग नहीं है; उदाहरणार्थ काम्पटन के प्रभावपूर्ण प्रकीर्णन में, जिन्हें तरंगों के रूप में आसानी से नहीं समझा जा सकता है । कथंचित् यह अनिश्चित है जैसे फोटोग्रैफिक फिल्म पर प्रकाश के प्रभाव को तरंग सिद्धान्त से सिद्ध करने में; यह कार्य क्वान्टम सिद्धान्त के रूप में समझने योग्य है; जो तरंग और कणिका दोनों के विचार को रखता है । यह ( प्रकाश ) तरंग और तरंग नहीं है, दोनों को एक साथ सिद्ध करता है ( यह तीसरा भङ्ग है ) । कथंचित् यह है और यह तरंग नहीं है, जैसे जब यह लेन्स या ग्रेटिंग से गुजरता है ( जहाँ यह निश्चित रूप से तरंग नहीं होता है) और तब यह काम्पटन प्रभाव को विषय करता है ( जहाँ यह निश्चित रूप से एक कणिका के रूप में प्रत्यास्पन्दन करता है ) । इसलिए वह क्रमश: तरंग है और तरंग नहीं है ( यह चौथा भंग है ) । कथंचित् यह ( प्रकाश ) तरंग है और यह अनिश्चित हैं, जैसे जब यह विवर्तित होता है तब यदि इसका चित्र लिया जाय । कथंचित् यह तरंग नहीं है और यह अनिश्चित है जैसे काम्पटन के प्रभाव के बाद यदि चित्र खींचा जाय । कथंचित् यह है और यह तरंग नहीं है और यह अनिश्चित है, जैसे यदि एक ग्रेटिंग, काम्पटन १. उद्धृत - Seven-valued Logic in Jain Philosophy” Printed in, International Philosophical Quarterly” p. 68-93, Vol. 4, 1964. By Prof. G. B. Burch.
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