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ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
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किन्तु ऐसी शंका करना ठीक नहीं है; क्योंकि जब यह कहा जाता है कि " प्रमाण का फल है अज्ञान का निवारण, इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग", तब उसका आशय यही होता है कि प्रमाण- ज्ञान गलत- ज्ञान का निवारण तो करता ही है । परन्तु उसके साथ ही नवीन ज्ञान भी प्रदान करता है । अर्थात् 'इष्ट वस्तु के ग्रहण" का तात्पर्य ज्ञानाभावरूप ज्ञान की प्राप्ति से ही है । उदाहरणार्थ - " कथंचित् यह कुर्सी ही है" जब ऐसा ज्ञान होता है तब उसमें उक्त सभी कार्य होते हैं; अर्थात् "यह कुर्सी नहीं है मेज आदि है" ऐसे गलत ज्ञान का निवारण होता है; अर्थात् उसमें मेज आदि रूप अनिष्ट वस्तु का त्याग होता है। साथ ही कुर्सी के कुसित्व रूप नवीन ज्ञान की प्राप्ति भी होती है । वस्तुतः प्रमाणज्ञान से मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान के नाश के साथ ही ज्ञानाभाव रूप अज्ञान की भी निवृत्ति होती है। एक और उदाहरण देखिए- जब सीप को रजत समझ कर हम उसके पास जाते हैं और उसे उठाकर देखने के पश्चात् कहते हैं कि यह तो सीप है चाँदी नहीं । तब वहाँ उसे रजत समझने वाले मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान का निराकरण तो होता ही है । किन्तु उसके साथ ही " यह सीप है" ऐसा एक नवीन ज्ञान भी प्राप्त होता है और यही ज्ञानाभावरूप अज्ञान का निराकरण है ।
इस प्रकार प्रमाण- ज्ञान से इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग होता है और इसी रूप में वह दोनों प्रकार के अज्ञानों का निराकरण करता है | ये कार्य तभी सम्भव हैं जब वह सम्यक् हो एवं स्वपरावभासक हो । स्वपरावभासक का अर्थ है स्व-पर का प्रकाशक अर्थात् ज्ञान अपने स्वरूप को प्रकाशित करते हुए पर पदार्थ को भी प्रकाशित करता है । उसे स्वयं प्रकाशित होने के लिए किसी दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती । उदाहरणार्थ - दीपक घटपटादि पदार्थों को प्रकाशित करने के साथ ही स्वयं को भी प्रकाशित करता है । उस दीपक को प्रकाशमान होने के लिए किसी अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं होती । वह प्रकाश रूप उत्पन्न होकर ही दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है । जो स्वयं अप्रकाशित है वह दूसरे को कैसे प्रकाशित कर सकता है । इसीलिए ज्ञान को "स्व-पर प्रकाशक" कहा गया है ।
इस प्रकार जैन आचार्यों की दृष्टि में ज्ञान प्रकाशमान दीपक के समान है । जो स्वयं को प्रकाशित करते हुए पर पदार्थों को भी प्रकाशित
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