________________
११०
जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या
करता है, और वही स्व-पर प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है। समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर आदि आचार्यों ने प्रमाण-लक्षण में इसी "स्वपरावभासक" पद को सन्निविष्ट किया है। ज्ञान न तो अज्ञात रहता है और न तो उसे ज्ञात करने के लिए किसी दूसरे ज्ञान की आवश्यकता ही होतो है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए जैनाचार्यों ने प्रमाण-लक्षण में "स्व" और "पर" पदों को समाहित करके ज्ञानाद्वैतवादी, ब्रह्माद्वैतवादी आदि दार्शनिकों के मतों का निरास किया है। __ जैन-दर्शन में प्रमाण-ज्ञान को अन्य प्रकार से भी परिभाषित किया गया है। जो ज्ञान ज्ञेय को समग्रतया ग्रहण करता है वह ज्ञान प्रमाण है। शेष ज्ञान या तो नय के रूप में प्रमाणांश होता है या दुर्नय के रूप में अप्रमाण होता है। वस्तुतः सर्वांशग्राही ज्ञान प्रमाण है अंशग्राही ज्ञान नय है। जैन-दर्शन में सर्वांशग्राही ज्ञान को सकलादेशी और अंशग्राही ज्ञान को विकलादेशी ज्ञान कहा गया है। चूंकि अनेकान्तात्मक वस्तु का समग्रतया ग्रहण प्रमाण का विषय है । इसोलिए प्रमाण को सकलादेशी कहा जाता है। अंशग्राही ज्ञान प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु को अंशतः ही ग्रहण करता है। इसलिए उस अंशग्राही ज्ञान को विकलादेशो ज्ञान कहते हैं। चूँकि नय प्रमाणद्वारा ग्रहण की गयी वस्तु के एकांश को ही प्रधान करके निर्णय देता है। इसलिए उसे प्रमाण न कहकर प्रमाणांश कहा जाता है यद्यपि प्रमाण भी ज्ञान है और नय भी ज्ञान है। किन्तु नय प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश में ही प्रवृत्ति करता है। अतः उसे न तो प्रमाण कहते हैं और न अप्रमाण; अपितु प्रमाणांश कहते हैं। इसी प्रमाण और नय व्यवस्था के कारण ही सप्तभंगो के-प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी-ऐसे दो विभाग किये गये हैं जिनका हम यथावसर विवेचन करेंगे।
(२) नय
जैन-दर्शन में ज्ञानके दो वर्गीकरण किये गये हैं । सर्वांशग्राही ज्ञान और अंशग्राही ज्ञान । जो ज्ञान समग्र वस्तु को अखण्ड रूप में ग्रहण करता या जानता है उसे सर्वांशग्राही ज्ञान और जो ज्ञान वस्तु के किसी एक पक्ष या पहलू को जानता है उसे अंशग्राही ज्ञान कहते हैं। इसी सर्वांशग्राही ज्ञान को प्रमाण और अंशग्राही ज्ञान को नय कहा गया है । पं० सुखलाल जी ने प्रमाण और नय की व्याख्या करते हुए कहा है कि "नय और प्रमाण"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org