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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या
__ इसी प्रकार बौद्ध-सम्मत “सारूप्य (ज्ञानाकार) एवं योग्यता"' को भी करण मानना उचित नहीं है। यद्यपि ज्ञान अर्थग्राहो होने पर पदार्थाकार या ज्ञेयाकार होता है परन्तु उसके ज्ञेयाकार होने का अर्थ मात्र इतना ही हो सकता है कि वह उस ज्ञेय को जानने के लिए अपना व्यापार कर रहा है। यदि ज्ञान का ज्ञेयाकार होना ही प्रमाण है, ऐसा मान लिया जाय तो वह ज्ञान जिसमें ज्ञेय का प्रतिभास मात्र हो रहा है वह भी प्रमाण हो जायेगा । ऐसी स्थिति में, रज्जु में सर्प का प्रत्यक्ष करने वाले ज्ञान को भी प्रमाण मानना पड़ेगा; क्योंकि रज्जु में सर्प का प्रत्यक्ष करने वाला ज्ञान भी प्रतिभास की दृष्टि से ज्ञेयाकार ही है। चाहे वह ज्ञेयाकारता एक सेकेण्ड की ही क्यों न हो; पर उस ज्ञेयाकारता को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः उस ज्ञान को भी प्रमाण को कोटि में रखना पड़ेगा। साथ ही संशय आदि ज्ञान भी तो पदार्थाकार ही होते हैं। जबकि उनमें प्रतिभास के अनुसार बाह्यार्थ को प्राप्ति नहीं होती। अतः वे ज्ञान प्रमाण नहीं हैं। इसीलिए सारूप्यता (ज्ञानाकारता), योग्यता आदि को प्रमाण का कारणभूत करण नहीं माना जा सकता।
चकि प्रमाण का फल है अज्ञान को निवृत्ति, इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग; और ये सब प्रमाण के ज्ञान-स्वरूप होने पर हो संभव है। अतः अज्ञान को निवृत्ति में अज्ञान विरोधी ज्ञान हो करण हो सकता है । अज्ञान दो तरह का होता है
१- ज्ञानाभाव रूप अज्ञान, और २- मिथ्या ज्ञान रूप अज्ञान ।
अब यहाँ यदि कहा जाय कि मिथ्याज्ञान रूप अज्ञान ज्ञानाकरण को ग्रहण करता है जिसका निवारण प्रमाण ज्ञान से होता है। तब ज्ञानाभाव रूप अज्ञान का निवारण किस प्रमाण से होगा? यदि यह कहा जाय कि प्रमाण-ज्ञान हो दोनों अज्ञानों का निवारण करता है तो ठीक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि ज्ञान के प्राप्त होने पर ही उसकी सत्यताअसत्यता का स्पष्टीकरण प्रतीत होता है । वस्तुतः प्रमाण ज्ञान मिथ्या ज्ञान रूप अज्ञान की ही निवृत्ति करता है ज्ञानाभावरूप अज्ञान की नहीं ।
१. "प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा।
तत्त्वसंग्रह, श्लोक १३४३ ।
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