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ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
१०७. के साथ काम करती हैं। अन्वय और व्यतिरेक भी इसी सामग्री के सम्बन्ध में होता है। मशीन का एक छोटा पुरजा भी यदि न हो तो सारी मशीन बेकार हो जाती है उसी प्रकार ज्ञान-सामग्री के छोटे से कारण के हटने पर ज्ञान नहीं हो पाता है। ज्ञान के सभी कारकों के रहने पर ही ज्ञान उत्पन्न होता है। यदि ऐसा है तो फिर किसे साधकतम करण कहा जाय ? सभी अपनी-अपनी जगह उसके घटक हैं और सभी साकल्य रूप से प्रमा के करण हैं।
इस प्रकार नैयायिकों ने सामग्री को प्रमाकरण रूप में स्वीकार किया है। किन्तु इसके विपरीत समन्तभद्रादि जैन आचार्यों ने "स्वपरावभासक ज्ञान" को ही प्रमिति का करण माना है और सन्निकर्ष एवं इन्द्रियादि सामग्री को प्रमिति-करण (प्रमाण) मानने में दोषोद्भावन भी किया है।' उनके विचार से इन्द्रिय, मन, पदार्थ और सन्निकर्षादि सामग्रियाँ केवल अर्थ-बोध की सहयोगी हैं करण नहीं, क्योंकि सन्निकर्षादि के अभाव में ज्ञान उत्पन्न होता है और कभी-कभी सन्निकर्षादि के रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। ऐसी स्थिति में सन्निकर्षादि को ही प्रमा का कारणभूत करण कैसे माना जाय ?
वास्तव में प्रमाण का फल जब अज्ञान की निवृत्ति है तब उसका करण भी अज्ञान विरोधी स्व और पर का अवभासक ज्ञान ही होना चाहिए इन्द्रियाँ आदि सामग्री नहीं। __यद्यपि जैन दार्शनिकों ने ज्ञानोद्भावन रूप सामग्री की कारणता को अस्वीकार नहीं किया है । तथापि उनको नैयायिकों की सामग्री-प्रामाण्यता अथवा कारक साकल्यता की प्रमाणता अभीष्ट नहीं है। प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी कहा गया है कि ज्ञान को साधकतम करण कहकर हम सामग्री की अनुपयोगिता या व्यर्थता सिद्ध कर रहे हैं। किन्तु हमारा यह अभिप्राय है कि इन्द्रियादि सामग्री ज्ञान की उत्पत्ति में तो साक्षात् कारण होती हैं; पर प्रमा अर्थात् अर्थोपलब्धि में साधकतम करण तो उत्पन्न हुआ ज्ञान ही हो सकता है । अतः सामग्री आदि को प्रमाण का करण नहीं माना जा सकता।
१. सर्वार्थसिद्धि, १:१० । २. "तस्याज्ञानरूपस्य प्रमेयार्थवत् स्वपर परिच्छतौ साधकतमत्वाभावतः
प्रमाणत्वायोगात् । तत्परिच्छितौ साधकतमत्वस्य अज्ञान विरोधिना ज्ञानेन व्याप्तत्वात् ।"
प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ८ ।
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