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________________ १०६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या परिभाषायें दी गयी हैं। किसी ने "स्वपरावभाषोज्ञान'' को प्रमाण कहा है, तो किसी ने "स्वपरावभाषी-बाधविवर्जित ज्ञान"२ को प्रमाण बतलाया है। किसी की दृष्टि में "स्वपरावभाषी व्यवसायात्मक ज्ञान"३ प्रमाण है, तो किसी की दृष्टि में "अनधिगतार्थक अविसंवादी ज्ञान" ही प्रमाण है । किसी ने "सम्यक् ज्ञान"५ को प्रमाण कहा है तो किसी ने 'स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान" को प्रमाण कहा है। फिर भी इन परिभाषाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं है । इनमें जो कुछ अन्तर हो सकता है वह शब्दो के आधार पर ही हो सकता है। इस प्रकार जहाँ तक प्रमाण के सामान्य लक्षण की बात है वहाँ तक तो लगभग समस्त भारतीय दर्शन एवं दार्शनिक एकमत हैं। परन्तु जैसे उसके कारणभूत करण की बात आती है उनके विचार परस्पर भिन्न हो जाते हैं। किसी ने सन्निकर्ष को करण कहा है तो किसी ने इन्द्रिय को। किसी ने इन्द्रिय-वृत्ति को तो किसी ने सारूप्य और योग्यता को प्रमिति का करण माना है। नैयायिकों ने ज्ञानात्मक और ज्ञान-भिन्न दोनों प्रकार की सामग्री को प्रमा के करण के रूप में स्वीकार किया है। उनका कहना है कि अर्थोपलब्धि रूप कार्य सामग्री रूप कारण से उत्पन्न होता है और इस सामग्री में इन्द्रिय, मन, पदार्थ प्रकाशादि ज्ञान-भिन्न वस्तुएं ज्ञान १. "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्' । स्वयम्भूस्तोत्र, का० ६३ । २. "प्रमाणंस्वपराभासिज्ञानं बाधविवर्जितम्"। न्यायावतार, का० १॥ ३. "व्यवसायात्म ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् ।" ___ लघीय, का०६०। ४. "प्रमाणविसंवादि ज्ञानमनाधिगतार्थ लक्षणत्वात् ।" अष्टशती, आप्तमीमांसा का० ३६, पृ० २२ । सनातनग्रन्थमाला प्रकाशन । ५. "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' प्रमाण-परीक्षा, पृ० १ । ६. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' । __ परीक्षामुख, १:१। ७. "अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावसामग्री प्रमाणम्' । न्यायमञ्जरी, पृ० २५; १:१:३ की टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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