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ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता
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गौतम ने यद्यपि प्रमाण का कोई सामान्य लक्षण सूत्रबद्ध नहीं किया था तथापि उनके टीकाकार वात्स्यायन ने न्यायसूत्र पर भाष्य लिखते हए कहा कि "उपलब्धि साधनरूप प्रमाकरण ही प्रमाण है। उनके इसी प्रमाणलक्षण को उद्योतकर, जयन्त भट्ट आदि नैयायिकों ने भी स्वीकार किया है। उदयन ने प्रमाण के सामान्य लक्षण में "अनुभव" ४ पद को सन्निविष्ट करके उपर्युक्त परिभाषा में कुछ भिन्नता प्रस्तुत को है। तथापि उन्हें प्रमाकरण रूप प्रमाण-लक्षण हो अभीष्ट रहा है। मीमांसक दार्शनिक प्रभाकरादि प्रमाण-लक्षण स्वरूप “पाँच विशेषणों"५ को बताने के बाद भी उसके उपर्युक्त अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं। सांख्यदर्शन में भी श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति ( व्यापार ) को हो प्रमाण का सामान्य लक्षण बतलाया गया है। बौद्ध दर्शन में "अज्ञात अर्थ के प्रकाशक रूप ज्ञान"" को प्रमाण कहा गया है। जैन परम्परा में भी लगभग इसी अर्थ का प्रतिपादन किया गया है। यद्यपि जैन-दर्शन में प्रमाण-लक्षण-स्वरूप बहुत सारो
१. 'उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि समाख्या निर्वचन सामर्थ्यात् बोधव्यम् । प्रमीयतेऽनेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः ।।
न्यायभाष्य, पृ० १८ । उद्धृत जैन दर्शन और प्रमाण शास्त्र परिशीलन, पृ० ३२१ । २. "उपलब्धिहेतुः प्रमाणं......"यदुपलब्धिनिमित्तं तत्प्रमाणं ।”
न्यायवार्तिक, पृ० ५ । ३. "प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति कर णसाधनोऽयं प्रमाणशब्दः ।"
न्यायमंजरी, पृ० २५ । ४. “यथार्थानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यते"
न्यायकुसुमाञ्जलिः ४:१ । ५. “तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधविवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ।।
उद्धृत-जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० ३२२ । ६. “रूपादिषु पञ्चानामालोचनमात्रमिष्यते वृत्तिः" ।
सांख्य का० २८। ७. "अज्ञातार्यज्ञापकं प्रमाणमिति प्रमाणसामान्य लक्षणम् ।"
प्रमाणसमुच्चय का० ३ की टीका ।
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