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१०४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
प्रकार यह सत्यापनीयता सम्बन्धी सिद्धान्त आधुनिक तर्कशास्त्र के संवादिता सिद्धान्त के निकट तो बैठता है पर इस सत्यापनीयता को जैनआचार्यों ने सापेक्ष रूप से ही स्वीकार किया है निरपेक्ष रूप से नहीं । वस्तुतः यह प्रतिफलित होता है कि जैन दर्शन में वे ही कथन सत्य माने जाते हैं जो सापेक्ष हों । उनकी यह सत्यापनीयता आगे प्रमाण, नय और दुर्नय के विवेचन में और भी स्पष्ट हो जायेगी
प्रमाण, नय और दुर्नय
( १ ) प्रमाण
से
सामान्यतया प्रमाण का लक्षण है " प्रमायाः करणम् प्रमाणम्” । अर्थात् प्रमाता जिस साधन से ज्ञान प्राप्त करता है वही प्रमाण है । प्रमा का अर्थ है यथार्थ ज्ञान । अर्थात् जो वस्तु जैसो है उसकी वैसी ही प्रतीति प्रमा है ( तद्वति तत्प्रकारानुभवः प्रमा ) । करण का अर्थ है साधकतम । अव्यवहित व्यापारवान् साधक ही साधकतम है । अतएव अव्यवहित व्यापार वाले असाधारण कारण को करण कहते हैं ( व्यापारवद् असाधारणं कारणं करणं ) । फल की प्राप्ति में अव्यवहित उपकारक ही करण होता है । यद्यपि ज्ञान प्राप्ति में अनेक सहयोगी होते हैं, परन्तु वे सब करण नहीं होते । करण तो वही होता है जिसका फल की प्राप्ति निकटतम सम्बन्ध होता है । यद्यपि अन्य सहयोगियों के न रहने पर भी फल की प्राप्ति असंभव हो सकती है । परन्तु वे सब फल की प्राप्ति में गौण रूप होते हैं । उदाहरणार्थं गन्ना को छीलने में चाकू और हाथ मुख्य रूप से दोनों हो सहायक होते हैं । किन्तु उसको छीलने का आत्यन्तिक सम्बन्ध चाकू से ही होता है । यद्यपि गन्ना और चाकू दोनों को रख देने मात्र से भी गन्ना नहीं छीला जा सकता, उसमें हाथ आदि अंग भी कार्य करते हैं । तथापि गन्ने को छीलने में सबसे नजदीकी या निकटस्थ सम्बन्ध चाकू से ही होता है । अर्थात् चाकू से ही गन्ना छोला जाता है हाथ आदि अंग उसकी सहायता मात्र करते हैं । अतः गन्ना को छीलने के कार्य में कारणभूत करण चाकू ही है हाथ आदि अंग नहीं ।
सर्वप्रथम प्रमाण-लक्षण निर्दिष्ट करते हुए कणाद ने कहा था - " अदुष्टं विद्या" ।' अर्थात् निर्दोष ज्ञान रूप विद्या ही प्रमाण है । न्यायसूत्रकार १. वैशेषिक सूत्र, ९:२७ ।
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