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ज्ञान एवं वचन की प्रामाणिकता (झ) अभिग्रहीता भाषा
जिस भाषा से किसी व्यक्ति के कथन का समर्थन या अनुगमन सूचित होता हो उसे अभिग्रहीता भाषा कहते हैं । जैसे-हाँ, तुम ऐसा ही करो आदि। (अ) संदेहकारिणी भाषा
संदेहात्मक भाषा भी सत्य-असत्य की कोटि से परे, अ-सत्य अ-मृषा भाषा के अन्तर्गत आती है। इसलिए यह भी असत्यापनीय भाषा है। जैसेसैन्धव अच्छा होता है। यहाँ यह वाक्य सन्देहात्मक है। क्योंकि सिन्धु देश के घोड़े की अच्छायी स्वीकृत है या नमक की अच्छायी । इसका स्पष्टीकरण इस कथन में नहीं हो पाता है।
(ट) व्याकृता भाषा
व्याकृता भाषा से जैन-विचारकों को क्या अभिप्रेत है, यह स्पष्ट नहीं होता है। हमारी दृष्टि में व्याकृत का अर्थ परिभाषित करना, ऐसा हो सकता है। वे कथन जो किसी तथ्य की परिभाषायें हैं इसकी कोटि में आते हैं। आधुनिक भाषावादी विश्लेषक दार्शनिकों की दृष्टि से कहें तो ये पुनरुक्तियाँ हैं । जैन-विचारक पुनरुक्तियों को सत्य या असत्य की कोटि में नहीं रखना चाहते हैं; क्योंकि ये पुनरुक्तियाँ न तो कोई नवीन कथन करती हैं और न तो इनका कोई विधेय ही निश्चित होता है। दूसरे, इन्हें ग्रहीतग्राही भाषा भी कह सकते हैं । वस्तुतः वे कथन जो गृहीत विधेय को ही ग्रहण करते हैं। इस व्याकृता भाषा की कोटि में आते हैं। ये व्याकृत कथन भी असत्यापनीय होते हैं। इसलिए इन्हें भी अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते है।
(ठ) अव्याकृता भाषा
वह भाषा जो किसी विधि या निषेध रूप निर्णय से परे हो, अव्याकृता भाषा कहलाती है। यह भाषा असत्यापनीय है। इसलिए इसे भी अ-सत्य अ मृषा भाषा कहते हैं।
इस प्रकार जैन आचार्यों ने सत्यापनीय कथनों को सत्य और असत्यापनीय कथनों को असत्य कहा है। चाहे वे निषेधात्मक हों या स्वीकारात्मक हों। यदि वे सत्यापनीय हैं तो सत्य है अन्यथा असत्य हो जाते हैं। इस
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