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________________ १०२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या सत्यापन सम्भव नहीं है। जैसे—पानी दो, कागज लाओ आदि । इसलिए इस भाषा को भी अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते हैं । (घ) प्रच्छनीय भाषा किसी से कुछ पूछने में जिस भाषा का प्रयोग होता है उसकी भी सत्यापनीयता संभव नहीं है। इसलिए उसे भी अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते हैं । जैसे-तुम कहाँ जा रहे हो ? क्या खा रहे हो ? आदि । (ङ) प्रज्ञापनीय भाषा ऐसी भाषा, जिससे किसी व्यक्ति को उपदेश दिया जाता हो। चूंकि वह तथ्यात्मक नहीं होती है और तथ्यात्मक न होने के कारण असत्यापनीय होती है। वस्तुतः उसे अ-सत्य अ-मषा भाषा की कोटि में रखना पड़ता है। जैसे-हिंसा करना पाप है, अहिंसा मोक्ष प्रदाता है; आदिआदि। (च) प्रत्याखनीय भाषा किसी व्यक्ति की याचना की उपेक्षा या अस्वीकार ज्ञापन हेतु जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है वह प्रत्याखनीय भाषा होती है। जैसेयहाँ से चले जाइए, तुम्हें भिक्षा नहीं दी जायेगी। (छ) इच्छानुकूलिका भाषा जिस भाषा के माध्यम से अपनी इच्छा ज्ञापित की जाती है उसे इच्छानुकूलिका भाषा कहते हैं। जैसे-मझे मिठाई बड़ी अच्छी लगती है। मैं शराब पीना पसन्द नहीं करता हूँ आदि। यह भाषा भी अतथ्यात्मक होने के कारण असत्यापनीय होती है। वस्तुतः इस भाषा को भी अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहते हैं। (ज) अनभिग्रहीता भाषा ऐसा कथन जिसके माध्यम से वक्ता किसी वस्तु से अपनी तटस्थता अभिव्यक्त करता है। उसे अनभिग्रहीता भाषा कहते हैं। जैसे-तुम्हें जो पसन्द हो वह खाओ, जैसे सुख हो वैसा करो। आदि-आदि। यह भाषा भी असत्यापनीय होने से अ-सत्य अ-मृषा भाषा कहलाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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