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७६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय की आधुनिक व्याख्या गये धर्मों के साथ ही साथ अनुक्त धर्मों की उपेक्षा नहीं होती है। वस्तुतः उससे यह सूचन होता है कि वस्तु में विवक्षित धर्म के अतिरिक्त अविवक्षित धर्म भी हैं। हम उनको अवहेलना नहीं कर सकते हैं। ५-“एव" से योजित होकर प्रकथन को निश्चयात्मक बनाना और तद्विरोधी
प्रकथन का व्यवच्छेद करना
प्रकथन में अभिव्यंजित अपेक्षित गुण-धर्म अपेक्षा विशेष से वस्तुतत्त्व में हैं ही; इसका विनिश्चय एव पद यक्त "स्यात्" शब्द के द्वारा होता है। एव पद से युक्त "स्यात्" शब्द प्रकथन को निश्वयात्मक बनाकर उसी अपेक्षा से उसके विरोधी प्रकथन की सत्यता का प्रतिषेध करता है । जैसे द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य हो है। इस प्रकथन में अपेक्षायुक्त "ही" पद से नित्यत्व धर्म का विनिश्चय तो होता ही है परन्तु उसके साथ ही अनित्यत्व धर्म का प्रतिषेध भी हो जाता है ।
इस प्रकार “स्यात्" शब्द एक निपात के रूप में सप्तभंगी में जो योगदान देता है वह उसके व्युत्पत्तिमूलक अर्थ से भिन्न है। वस्तुतः वह उपर्युक्त बातों का एक प्रतीक है। अतः जैन-दर्शन में "स्यात्" शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में ही हआ है और वही उसका वास्तविक अर्थ है संशय, संभवतः, अनिश्चय आदि नहीं । अनेकान्तवाद और स्यावाद का सम्बन्ध __ जैन-दार्शनिकों ने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उसमें अनन्तगुण, अनन्तधर्म और अनन्तपर्यायें अपेक्षा भेद से सदैव विद्यमान रहती हैं। इतना ही नहीं, प्रत्येक वस्तु न केवल अनन्त गुण-धर्मों से युक्त है अपितु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले विरोधो धर्म यगल भी उसमें अविरुद्ध भाव से विद्यमान रहते हैं। अतएव प्रत्येक वस्तु को एक, अनेक, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, सादि-सान्त, आदि कहा जा सकता है। वस्तु में सत् पक्ष (भाव पक्ष) तथा असत् पक्ष (अभाव पक्ष) दोनों है। वह सामान्य भी है और विशेष भी। वह स्थायी भी है और क्षणिक भी। वह एक भो है और अनेक भी। यदि हम वस्तु को द्रव्य दृष्टि से देखते हैं तो वह सामान्य, स्थायी, एक रूप और अपरिवर्तनशील (अपरिणामी) प्रतीत होती है; किन्तु यदि हम उसे पर्यायों की दृष्टि से देखते हैं तो वही विशेष, क्षगिक, अनेक और परिवर्तनशील
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