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स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि
१ - अनन्तधर्मता का द्योतक
" स्यात् " शब्द का वस्तु की अनन्तधर्मता का द्योतक होने का आशय है कि वह वस्तुतत्त्व जिसके संदर्भ में किसी गुणधर्मं ( विधेय) का विधान या निषेध किया जा रहा है, अनन्तधर्मात्मक है । जैसे " स्यात् अस्त्येव घटः " तर्कवाक्य में " अस्ति" पद उद्देश्य घट के "अस्तित्व" धर्म का वाचक है तो " स्यात् " पद उसकी अनेकान्तता का द्योतन करता है अर्थात् वह उस समय उद्देश्य के अस्तित्व धर्म से भिन्न शेष अन्य धर्मों का भी प्रतिनिधित्व करता है ।
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२ - वस्तु में कथ्य धर्म की सापेक्षता का सूचक
" स्यात् " शब्द वस्तु के कथ्य धर्म की सापेक्ष सत्ता या अवस्थिति का सूचक है । इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु के जिस धर्म को हम प्रकथन का विधेय बना रहे हैं वह धर्म उस वस्तुतत्त्व अर्थात् प्रकथन के उद्देश्य पद में सापेक्षतया अवस्थित है ।
३- प्रकथन को सापेक्ष एवं सोमित बनाना
" स्यात् " शब्द का तीसरा कार्यं प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित बनाना है । वह यह बताता है कि उद्देश्य के सम्बन्ध में जिस विधेय का विधान या निषेध किया गया है वह अपेक्षाश्रित ही है निरपेक्षतः नहीं । इसके साथ ही " स्यात् " पद यह भी स्पष्ट करता है कि प्रकथन में उद्देश्य के केवल एक ही विधेय (धर्म) की अभिव्यंजना की गयी है उसमें अवस्थित सभी भावात्मक-अभावात्मक विधेयों (धर्मों) को नहीं । जैसे "स्यादस्त्येव घट: " में घट के मात्र अस्तित्व धर्म की अभिव्यंजना की गयी है; वह भी मात्र द्रव्यदृष्टि से पर्याय आदि दृष्टियों से नहीं। इस प्रकार " स्यात् " प्रकथन की सापेक्षता एवं सीमितता का भी वाचक है ।
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४- एकान्तता का निषेधक
जैन-दर्शन के अनुसार एकान्तिक कथन असत्य होते हैं और सापेक्षिक कथन सत्य । इसीलिए जैन दर्शन सभी भंगों के पूर्व "स्यात् " पद जोड़ता है । वस्तुतः सप्तभंगी का यह " स्यात् " पद एकान्तिक कथनों का निषेध भी करता है अर्थात् यह स्पष्ट करता है कि उक्त कथन एकान्तिक नहीं है, वह अनेकान्तिक अथवा सापेक्ष है । कथन में " स्यात् " पद के प्रयुक्त होने से कहे
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