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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
अर्थात् विवक्षित और अविवक्षित अर्थों के स्पष्टीकरण के बिना पदार्थ के स्वरूप का निर्धारण करना भी संभव नहीं होगा । पुनश्च उन्होंने यह भी कहा है कि " एवकार" (ही) के अभाव में उक्त वाक्य भी अनुक्ततुल्य हो जाता है । यथाहि "जो पद एवकार से रहित है वह अनुक्ततुल्य है । '
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यद्यपि यहाँ " एव" शब्द का यह प्रयोग अनेकान्तिक सामान्य वाक्य को सम्यक् एकान्तिक विशेष वाक्य के रूप में परिणत कर देता है किन्तु यदि वाक्य में " एव" का प्रयोग न किया जाय तो उस प्रकथन में निश्चयात्मकता का अभाव तो रहता ही है । साथ ही वह तद्- विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेदक भी नहीं बन सकता है । उदाहरणार्थ - " स्यादस्तिघटः " अर्थात् किसी अपेक्षा से इसमें घटत्वधर्म है । इस वाक्य में एवकार नहीं है और " अस्ति" पद के साथ अवधारणार्थक 'एव' शब्द के न होने से 'नास्तित्व' का व्यवच्छेद नहीं बनता और नास्तित्व का व्यवच्छेद न बन सकने से उसमें पटत्व आदि नहीं है इसका स्पष्टीकरण नहीं हो पाता । वस्तुतः नास्तित्व आदि के व्यवच्छेद के लिए " एव" का प्रयुक्त होना आव श्यक है ।
इस प्रकार " स्यात् " पद के साथ " एव" शब्द के आ जाने से प्रकथन में निश्चयात्मकता आ जाती है और "एव" शब्द के साथ " स्यात्" का प्रयोग करने से " स्यात् " शब्द तद्विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेदक बन जाता है । इस प्रकार " स्यात् " पद के अधोलिखित कार्यं होते हैं
१. वस्तु की अनन्तधर्मता को सूचित करना । में अपेक्षित धर्म का निर्देशन करना ।
२. वस्तु
३. प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित बनाना ।
४. एकान्तता का निषेध करना । और
५. " एव" से योजित होकर प्रकथन को निश्चयात्मक बनाना और तद्विरोधी प्रकथन का व्यवच्छेद करना ।
१. अनुक्त-तुल्यं यदनेवकारं व्यावृत्यभावान्नियमद्वयेऽपि । पर्याय-भावेऽन्यतर प्रयोगस्तत्सर्वमन्यच्युतमात्म हीनम् ॥
युक्त्यनुशासन, का० ४२ ।
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