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स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि
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(परिणामी) प्रतीत होती है। इसीलिए प्रत्येक वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा जाता है और वस्तु की उस अनेकान्तात्मकता का.प्रतिपादन अनेकान्तवाद करता है।
जैन-दर्शन के अनुसार अनेकान्तात्मक वस्तु के सम्बन्ध में हमारे सभी परामर्श ( Judgement ) आवश्यक रूप से सापेक्ष तथा सीमित होते हैं । हम अपनी सीमित ज्ञान एवं अभिव्यक्ति सामर्थ्य के कारण उसके यथार्थ स्वरूप के अवलोकन एवं कथन करने में असमर्थ रहते हैं। हम उसके अनेक धर्मों में से कुछ ही धर्मों को ग्रहण कर पाते या कह पाते हैं । जब हम किसी एक विवक्षा से ही वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं तब निश्चय ही उसके समग्र स्वरूप की अवहेलना होती है। इसी सच्चाई को न जानने के कारण ही सातों अन्धे हाथी के यथार्थ स्वरूप के विवेचन में असमर्थ रहे । जिसका यथार्थ निरूपण स्याद्वाद करता है।
जैन-आचार्यों का कहना है कि प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मवती है। वस्तु में सत् पक्ष, असत् पक्ष, नित्य पक्ष, अनित्य पक्ष आदि सभी पक्ष विद्यमान हैं। उनमें किसी अपेक्षा से सत् पक्ष है तो किसी अपेक्षा से असत् पक्ष है, किसी अपेक्षा से नित्य पक्ष है तो किसी अपेक्षा से अनित्य पक्ष है। अतः सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य आदि एकान्तों का निरसन करके वस्तु का कथंचित् सत्, कथंचित् असत्, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि पक्ष युक्त होना अनेकान्त है और वस्तु के उस अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन करने की पद्धति का नाम स्याद्वाद है।' स्वामी समन्तभद्र ने भी कहा है कि "स्याद्वाद वह सिद्धान्त है जो सदा एकान्त को अस्वीकार कर अनेकान्त को ग्रहण करता है।
"अनेकान्तवाद" वस्तुओं में अवस्थित विभिन्न धर्मों का सूचक है और स्याद्वाद उनको अभिव्यक्त करने की भाषायी पद्धति है। वस्तुतः अनेकान्तवाद की भाषायी अभिव्यक्ति का रूप ही स्याद्वाद है। वस्तुओं में स्थित अनन्त धर्म स्याद्वाद के माध्यम से ही मुखरित होते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में वाच्य-वाचक
१. "अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः"
लघीयस्त्रय टीका, श्लो० ६२ । २. आप्तमीमांसा, श्लोक १०४ ।
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