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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
भाव सम्बन्ध है । अनेकान्तवाद वाच्य है और स्याद्वाद उसका वाचक है । क्योंकि स्याद्वाद अनेकान्तवाद को ही अभिव्यक्त करता है और अनेकान्तवाद स्याद्वाद के माध्यम से ही अभिव्यक्त हो सकता है । इसलिए श्री विजयमुनि का भी कहना ठीक हो है कि "अनेकान्तवाद विचार प्रधान होता है और स्याद्वाद भाषा प्रधान होता है ।" अतः दृष्टि जब तक विचार रूप है तब तक वह अनेकान्त है और दृष्टि जब वाणी का चोगा पहनती है तब वह स्याद्वाद बन जाती है।' इस प्रकार स्याद्वाद अनेकान्तवाद को ही अभिव्यक्त करता है ।
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यद्यपि कुछ जैन आचार्यों ने स्याद्वाद और अनेकान्तवाद को एक ही बताया है । उन आचार्यों ने यह स्पष्ट किया हैं कि जो स्याद्वाद है वही अनेकान्तवाद है और जो अनेकान्तवाद है वही स्याद्वाद है । किसी सीमा तक स्याद्वाद को अनेकान्तवाद का पर्यायवाची माना जा सकता है, क्योंकि स्याद्वाद से जिस वस्तु का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है और स्याद्वाद उस अनेकान्तात्मक अर्थ का सूचक है । इस प्रकार स्थूल दृष्टि से स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की अभेदता सिद्ध होती है । स्याद्वादमंजरी में इस अभेदता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "स्थात्" यह अव्यय अनेकान्त का द्योतक है, इसीलिए स्याद्वाद को कहते हैं ।
अनेकान्तवाद भी
"अनेकान्त" शब्द सूचक हैं अर्थात्
स्याद्वाद में " स्यात् " शब्द और अनेकान्तवाद में की प्रधानता होती है । " स्यात् " शब्द "अनेकान्त" का अनेकान्त को अभिव्यक्त करने के लिए ही "स्पात्" शब्द प्रयुक्त होता है । वस्तुतः उसके वाचक शब्द के साथ जब तक " स्यात् " शब्द का प्रयोग नहीं होता तब तक उसकी प्रतोति नहीं होती । उदाहरणार्थ "यह पुस्तक लाल है" ऐसा कहने से उसकी लालिमा का भान तो होता है किन्तु उसमें उसके अतिरिक्त और भी अनेक धर्म हैं इसका बोध नहीं होता । अतएव उसके उस अर्थ का बोध कराने के लिए "स्वात् " शब्द का प्रयुक्त होना आवश्यक है । इस प्रकार जैन दर्शन में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को
१. अनेकान्तवाद : एक परिशीलन, पृ० १३ ।
२. " स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादः "
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- स्याद्वादमंजरी, श्लोक २५ की टीका.
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