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( ३३ ) की विधायक दृष्टि, वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता और अनेकान्त की अवधारणा है।
इस प्रकार इस अध्याय में यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि किस प्रकार यह समन्वयवादी विचारधारा उपनिषद् काल से चलकर बौद्धागमों में होती हई जैन परम्परा में विकसित होकर स्याद्वाद के रूप में परिणत हो जाती है। जैन विद्वानों की यह मान्यता है कि यद्यपि स्याद्वाद के मूलतत्त्व आगम ग्रन्थों में हैं, किन्तु उसका विकास क्रमशः हुआ है। इसका इस अध्याय में विस्तृत विवेचन है। उपनिषद् काल में विश्व के मूलतत्त्व को लेकर विभिन्न प्रकार के मत-मतान्तर प्रचलित थे। सत्वादी, असत्वादी, चैतन्यवादी, अचैतन्यवादी आदि-आदि। बौद्ध पिटक ग्रन्थों में ६२ मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख है। जैनागम सूत्रकृतांग में भी क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी इन चार मूल दृष्टिकोणों का विस्तृत विवेचन है। किन्तु, उपनिषद् काल से ही इन परस्पर विरोधी विचारधाओं के बीच समन्वय के भी प्रयास चल रहे थे। उपनिषदों में ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध हैं जो अनेक विरोधी विचारधाराओं को अपने में समाहित करते हैं । देखिए
तदेजति तन्नेजति तद्रे तदन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तद सर्वस्यास्य बाह्यतः ।।
-ईश० ५. और भी :अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोनिहितो गुहायाम् ।
-कठ०, १-२-२०. भगवान् बुद्ध ने तत्कालीन शाश्वत्वादी, उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी मान्यताओं की समालोचना की और कहा कि सबके सब मन्तव्य दोषपूर्ण हैं क्योंकि ये सभी तत्त्व के एक-एक पक्ष का ही निरूपण करते हैं। वस्तुतः ये सभी मतवाद एकान्तिक हैं और इसलिए मिथ्या हैं। यही कारण है कि भगवान् बुद्ध ने सभी मतवादों को त्याज्य बताया है
परमन्ति दिट्ठीसु परिब्बसानो, यदुत्तरिं कुरुते जन्तु लोके । हीनाति अञ्चे ततो सब्बमाह, तस्सा विवादानि अवीतिवत्तो ॥१॥
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