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( ३२ ) भंगों से सात ही भंग तैयार होते हैं। इसे जैन आचार्यों ने गणितशास्त्र (Mathematics) के आधार पर सिद्ध किया है। यदि अस्ति = अ, नास्ति = ब और अवक्तव्य = स है तो इनके संयोग से अपुनरूक्त भंग सात ही बनेंगे-अ,ब,अब,स,अस, बस और अबस। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या सप्तभंगी के ये सातों कथन तर्कतः सत्य हैं या इनमें सत्यता, असत्यता ऐसी दो ही कोटियाँ हैं ? क्या ये मात्र तार्किक प्रारूप (Logical Form) हैं ? क्या आधुनिक तर्कशास्त्र के विविध सिद्धान्त जैसे द्वि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Two Valued Logic), त्रि-मल्यात्मक तर्कशास्त्र (Three Valued Logic) बहु-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र (Many Valued Logic), मानक तर्कशास्त्र (Modal Logic), संभाव्य तर्कशास्त्र (Probability Logic) इत्यादि से इनका कोई सम्बन्ध है ? क्या इन सप्तभंगों का सत्य मूल्यांकन सम्भव है ? क्या सप्तभंगी त्रि-मूल्यात्मक है ? अथवा यदि यह त्रि-मूल्यात्मक नहीं है तो क्या यह सप्त-मूल्यात्मक है ? आदि-आदि। प्रस्तुत प्रबन्ध में इन्हीं समस्याओं को लेकर जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक सन्दर्भ में व्याख्या करने का प्रयत्न किया। गया है।
इस शोध प्रबन्ध को कूल छ: अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय "अनेकान्तिक दृष्टि का विकास" है। यह अध्याय दो विभागों एवं छः उप-विभागों में विभक्त है। प्रथम विभाग में ईसापूर्व छठीं शताब्दी के दार्शनिक चिन्तन की स्थिति का चित्रण है। इस विभाग में क्रमशः उपनिषदों में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं, बौद्धपिटक साहित्य में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं और जैनागम सूत्रकृतांग में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का प्रस्तुतीकरण हुआ है। द्वितीय विभाग में दार्शनिक चिन्तन में उपलब्ध विरोधसमाधान या समन्वय के प्रयत्न को चर्चा है, जो उपनिषदों, बौद्धपिटक साहित्य और जैनागम साहित्य के आधार पर की गयी है। इसी प्रसंग में उपनिषदों के अनिर्वचनीय दृष्टिकोण, बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण और जैन परम्परा के समन्वय के प्रयास पर भी विचार किया गया है। इसके साथ ही बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण को तीन रूपों में अभिव्यक्त किया गया है-एकान्तवाद का निषेध, अव्याकृतवाद और विभज्यवाद। जैन परम्परा में जिस समन्वय दृष्टि का विकास हुआ उसका आधार महावीर
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