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प्राक्कथन
स्याद्वाद जैन-दर्शन की अपनी विशिष्टता है। जैन-दर्शन में इसका इतना अधिक महत्त्व है कि यह जैन-दर्शन का पर्याय ही माना जाता है। वस्तुतः स्याद्वाद जैन-दर्शन का प्राण है। सम्पूर्ण जैन दर्शन इसी पर आधारित है। स्याद्वाद "स्यात्" और "वाद" इन दो शब्दों से निष्पन्न है। “स्यात्" का अर्थ है दृष्टिकोण-विशेष या अपेक्षा-विशेष और "वाद" का अर्थ है कथन या प्रतिपादन । इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ होगा स्यात् पूर्वक वाद अर्थात् सापेक्षिक प्रतिपादन । __ जैन दर्शन के अनुसार वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं (अनन्त धर्मकं वस्तु)। वस्तु में सत्त्व-असत्त्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व, भावअभाव आदि अनेक परस्पर विरोधी गुण-धर्म पाये जाते हैं। इन अनन्त गुण-धर्मों के कारण ही वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा जाता है। वस्तु का यह अनेकान्तात्मक स्वरूप स्याद्वाद के द्वारा मुखरित होता है। इसीलिए स्याद्वाद को अनेकान्तवाद का वाचक कहा जाता है। स्याद्वाद का यह भाषायीरूप जिन प्रकथनों से अभिव्यक्त होता है, उसी को सप्तभंगी कहते हैं।
हमारी भाषा “विधि" और "निषेध" से आवेष्टित है। हमारे सभी प्रकथन "है" और "नहीं है" इन दो ही प्रारूपों में अभिव्यक्त होते हैं। सामान्य तर्कशास्त्र भी प्रकथन के विधि और निषेध इन दो ही मानदण्डों को अपनाता है। किन्तु कभी-कभी ऐसी समस्याएँ भी आती हैं जब केवल विधि-मुख से या केवल निषेध-मुख से कथ्य को स्पष्ट करना असम्भव हो जाता है। ऐसे भी विकल्प होते हैं जिनका प्रतिपादन "है"-(विधि) और "नहीं है" (निषेध) से नहीं हो पाता है। ऐसी परिस्थिति में एक तीसरे विकल्प का सहारा लेना पड़ता है। जिसे जैन दर्शन में अवाच्य या "अवक्तव्य" कहा जाता है। इन्हीं तीन "है", "नहीं है" और "अवक्तव्य" -विकल्पों से जैन दर्शन सात प्रकार का प्रकथन तैयार करता है। जिसे सप्तभंगी कहते हैं। वस्तुतः सप्तभंगी मूलरूप से "है" (अस्ति), "नहीं है" (नास्ति) और 'अवाच्य' (अवक्तव्य) पर ही आधारित है । इन तीनों मूलभूत
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