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( ३४ ) अर्थात् इस संसार में जो अपनी दृष्टि को उत्तम मान बैठता है, उस कारण लड़ाई करता है और दूसरों को नीच समझता है। वह विवादों से परे नहीं है। इसीलिए उन्होंने कहा कि ज्ञानीजन ऐसी दृष्टि में नहीं पड़ते हैं
दिट्ठिम्मि सो न पच्चेति किञ्च । किन्तु तत्कालीन सभी मतवादों के निषेध करने के कारण ही बौद्ध दर्शन शून्यवाद की ओर अग्रसर हो जाता है। जबकि बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण के विपरीत महावीर ने विधायक दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने तत्कालीन सभी मन्तव्यों को स्वीकार कर उनमें समन्वय का प्रयत्न किया। महावीर के अनुसार उक्त सभी मन्तव्य यदि पूर्ण सत्य नहीं हैं तो वे पूर्णतः असत्य भी नहीं हैं। अतः महावीर ने तत्कालीन सभी मतवादों में सत्यांश देखा और सबका समन्वय किया। कहा भी गया है यथा
सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारे ते विउस्सिया ॥
-सूत्रकृतांग, १-२-२३. अर्थात् जो पुरुष अपने मत की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे के वचनों की निन्दा करते हैं वे संसार में मजबूती से जकड़े हुए हैं-दृढ़रूप से आबद्ध हैं । इसी समन्वयात्मक प्रवृत्ति से जैनों की विधायक दृष्टि का विकास हुआ उनके अनुसार नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि एक ही सत् के अनेक पक्ष हैं। ये सभी पक्ष एक ही काल में सत्ता में विद्यमान रहते हैं। यही नहीं, उन्होंने प्रत्येक पदार्थ को अनन्तधर्मात्मक बताया और कहा कि नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि अनेक परस्पर विरोधी गुण-धर्म प्रत्येक वस्तु में पाये जाते हैं। यही वस्तू की अनन्तधर्मात्मकता है। वस्तु की इसी अनन्तधर्मात्मकता का प्रतिपादन अनेकान्तवाद करता है। इस प्रकार इन सभी विषयों का प्रस्तुत अध्याय में विस्तृत विवेचन है।
इस प्रबन्ध का दूसरा अध्याय "स्याद्वादः एक सापेक्षिक दृष्टि" है। इस अध्याय में स्याद्वाद के अर्थ, “स्यात्" शब्द के व्युत्पत्तिगत् अर्थ, स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में उत्पन्न विभिन्न भ्रान्तियाँ एवं उनके
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