________________
( ३५ ) निराकरण, स्यात् पद के वास्तविक अर्थ तथा स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के सम्बन्ध के संदर्भ में एक विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है ।
जैन दर्शन की यह मान्यता है कि स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में वाच्य-वाचक भाव सम्बन्ध है।
“अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः ।" । क्योंकि वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक होने से अनेकान्तात्मक हैं और वस्तु की इस अनेकान्तात्मकता का प्रतिपादन अनेकान्तवाद करता है। किन्तु वस्तु का यह अनेकान्तात्मक स्वरूप स्याद्वाद के माध्यम से ही अभिव्यक्त होता है। इसलिए स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में वाच्य-वाचक या आधारआधेय सम्बन्ध है। अनेकान्तवाद वाच्य है तो स्याद्वाद उसका वाचक है। स्याद्वाद "स्यात्" और "वाद" इन दो शब्दों के संयोग से निष्पन्न है। "स्यात्" का अर्थ है, दष्टिकोण विशेष या अपेक्षा और वाद का अर्थ है कथन या प्रतिपादन। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ होगा स्यात् पूर्वकवाद अर्थात् सापेक्षतापूर्ण कथन करना। किन्तू, इस स्याद्वाद के संदर्भ में विभिन्न प्रकार की भ्रान्त धारणाएँ हैं। उन भ्रान्त धारणाओं के कारण के रूप में "स्यात्" पद को ठहराया जाता है। यह कहा जाता है कि स्याद्वाद की समस्त भ्रान्तियों का मूल “स्यात्" शब्द ही है। इसी स्यात् शब्द के अर्थ के संदर्भ में विभिन्न विचारकों ने विभिन्न विचार प्रस्तुत किये हैं। इस अध्याय में उन सभी दार्शनिकों के मन्तव्यों को एकत्रित करके उनकी भ्रान्तियों का निराकरण और “स्यात्" शब्द का युक्तियुक्त अर्थ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है।
तत्पश्चात् “ज्ञान और वचन की प्रामाणिकता" नामक तीसरा अध्याय आता है। इस अध्याय में ज्ञान एवं कथन की प्रामाणिकता के प्रश्न को लेकर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसी प्रसंग में प्रमाण, नय और दुर्नय की भी विवेचना प्रस्तुत की गयी है। ___ जैन दर्शन के अनुसार वस्तु का स्वरूप इतना गुहय है कि उसका पूर्णतः ज्ञान प्राप्त करना एक सामान्य मनुष्य के लिए असम्भव है और यदि किसी तरह उसका ज्ञान प्राप्त हो भी जाय तो उसका कहना असम्भव है, क्योंकि वाणी को शक्ति अत्यन्त सीमित है। कहा भी गया है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org