________________
( ३६ )
पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अण्णभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पण, अनंतभागो सुदणिबद्धो ॥ - विशेषावश्यक भाष्य, ३५.
अर्थात् संसार में ऐसे बहुत से पदार्थ हैं जो अनभिलाप्य हैं । शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय होता है । इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्र में निबद्ध है । वस्तुत: यह कैसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र की बात या अमुक ज्ञानी की ही बात मात्र सत्य है । इसलिए वस्तु के संदर्भ में सापेक्षिक कथन करना आवश्यक हो जाता है । जैन दर्शन के अनुसार ये सापेक्ष कथन प्रमाण हैं । इन्हीं को सम्यक् नय भी कहा जाता है । वस्तु के एक-एक धर्म का निरपेक्षतः कथन करने वाले सभी नय, दुर्नय हैं और वे दुर्नय होने से मिथ्या हैं, किन्तु वे जब सापेक्ष होते हैं तो सम्यक् नय और यथार्थ हो जाते हैं । नय को सम्यक् नय होने के लिए जैन दर्शन में एक परिमाणक के रूप में " स्यात् " पद की योजना है । यह " स्यात्" कथन के पूर्व में आकर कथन को सापेक्ष बनाता है । वस्तुतः स्यात् पूर्वक सापेक्ष कथन ही प्रामाणिक है ।
इस प्रबन्ध के चौथे अध्याय में भंगवाद के विकास को स्पष्ट करते हुए उन भंगों की आगमिक व्याख्या प्रस्तुत की गयी है । जैन दर्शन के अनुसार सप्तभंगी का विकास आगम ग्रन्थों, विशेषतः भगवतीसूत्र या वियाहपति से ही हुआ है । सप्तभंगी के चार भंग तो उपनिषद् काल से ही चले आ रहे हैं - सत्-पक्ष, असत्-पक्ष, उभय पक्ष और अनुभय पक्ष | ये चारों पक्ष बौद्ध दर्शन में भी उपलब्ध हैं । जैनागमों में इन्हीं चारों पक्षों को विकसित करके सात प्रकार का बना दिया गया है । इसी को सप्तभंगी कहते हैं । वस्तुतः सप्तभंगी के पूर्व के चार भंग आगमिक और उत्तर के तीन भंग नवीन हैं जो कि जैनों के द्वारा दिये गये हैं । यद्यपि ये सभी उसी रूप में यहाँ स्वीकृत नहीं हैं जिस रूप में औपनिषदिक् ग्रन्थों में या बौद्धागमों में प्रयुक्त हैं । इनके अर्थ के सम्बन्ध में कुछ परिवर्तन हुआ है । जहाँ बौद्ध दर्शन इन पक्षों को निषेध रूप से प्रयुक्त करता है वहीं जैन दर्शन विधायक रूप अंगीकार करता है । इसीलिए सप्तभंगी के सभी भंगों को विधेयात्मक कहा गया है। इसकी विशद् चर्चा प्रस्तुत अध्याय में है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org