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________________ ( १७ ) योजना है, वह वचन भेद कृत संख्याओं के कारण है। उसमें भी मूल भंग सात ही हैं।' पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि प्राचीन दिगम्बर आगम ग्रन्थों में और शेष परवर्ती साहित्य में सप्तभंग ही मान्य रहे हैं। अतः विद्वानों को इन भ्रमों का निवारण कर लेना चाहिये कि ऐसे संयोगों से सप्तभंगी ही क्यों अनन्त भंगी भी हो सकती हैं अथवा आगमों में सात भंग नहीं हैं । सप्तभंगी भी एक परवर्ती विकास है। सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता है। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के तार्किक आकार (Logical forms) मात्र हैं। उसमें स्यात् शब्द कथन की सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक (Affirmative) और निषेधात्मक (Negative) होने के सूचक हैं। कुछ जैन विद्वान अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को अभावात्मकता का सूचक मानते हैं किन्तु यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को मान्य नहीं हो सकताउदाहरण के लिए जैन दर्शन में आत्मा भाव रूप है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है। अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आपमें कोई कथन नहीं है, अपित कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं। उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख आवश्यक है । जैसे स्याद् अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगा-द्रव्य की अपेक्षा आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्याद् आत्मा है, तो हमारा कथन भ्रम पूर्ण होगा। अपेक्षा और विधेय पद के उल्लेख के अभाव में सप्तभंगी के आधार पर किये गये कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देते हैं, जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के प्रसंग में किया है। आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए उसे निम्न सांकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है। १. देखें-जैन दर्शन-डॉ. मोहनलाल मेहता पृ. ३००-३०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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