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स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि
इस प्रकार स्यात्-निपात एक ऐसा शब्द प्रतीक है जो एक ओर तो वस्तु के अनेकान्तात्मक होने की सूचना देता है और दूसरी ओर विवक्षित धर्मों के प्रकाशन के साथ-साथ अविवक्षित धर्मों की वस्तु में उपस्थिति को सूचित भी करता है अर्थात् यह बतलाता है कि विवक्षित धर्म के अतिरिक्त अविवक्षित धर्म भी वस्तुतत्त्व में अवस्थित हैं। डॉ० महेन्द्र कुमार का कथन है कि " स्यात् " शब्द एक ऐसा प्रहरी है, जो शब्द की मर्यादा को संतुलित रखता है । वह संदेह या संभावना को सूचित नहीं करता, किन्तु एक निश्चित स्थिति को बताता है कि वस्तु अमुक दृष्टि से अमुक धर्मवाली है ही ।" वस्तुतः " स्यात् " शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोण अथवा निर्णीत अपेक्षा का सूचक है ।
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" स्यात् " शब्द को "सिया " शब्द का पर्यायवाची मानकर उसके अर्थं का स्पष्टीकरण करते हुए डॉ० महेन्द्र कुमार कहते हैं कि प्राकृत और पाली में " स्यात् " का "सिया" रूप होता है । यह वस्तु के सुनिश्चित भेदों के साथ सदा प्रयुक्त होता रहा है । जैसे "मज्झिम निकाय" के " महाराहुलोवादसुत्त" में आपो धातु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि "कतमा च राहुल आपोधातु ?” "आपोधातु सिया अज्झत्तिका सियावाहिरा"आपोधातु (जल) कितने प्रकार की है ? आपोधातु स्यात् आभ्यन्तर है. और स्यात् बाह्य । यहाँ आभ्यन्तर धातु के साथ “सिया” शब्द का प्रयोग आपधातु के आभ्यन्तर भेद के सिवा द्वितीय बाह्य भेद की सूचना के लिए है, और बाह्य के साथ "सिया" शब्द का प्रयोग बाह्य के सिवा आभ्यन्तर भेद की सूचना देता है; अर्थात् आपोधातु न तो (मात्र) बाह्य रूप ही है और न ( मात्र ) आभ्यन्तर रूप ही । इस उभय-रूपता की सूचना “सिया”" स्यात् " शब्द देता है । यहाँ न तो " स्यात् " शब्द का "शायद " ही अर्थ है, और न "संभव” और न " कदाचित् " ही; क्योंकि आपोधातु शायद आभ्यन्तर और शायद बाह्य नहीं है और न संभवतः आभ्यन्तर और संभवतः बाह्य और न कदाचित् आभ्यन्तर और बाह्य अपितु उभय
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१. जैन दर्शन, पृ० ४४.
२. "सिया” प्राकृत और पाली साहित्य का शब्द है जिसका अर्थ होता है"किसी अपेक्षा से" ।
देखें - जैनागम शब्द संग्रह, पृ० ७७६.
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