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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगो नय को आधुनिक व्याख्या भेदवाली है। इसी प्रकार "स्यात्" शब्द न तो मात्र वस्तु की अनेकान्तात्मकता को सूचित करता है और न तो मात्र कथन हेतु अपेक्षित धर्म को ही । अपितु वह वस्तु की अनेकान्तात्मकता के साथ ही विवक्षित धर्म का सूचन करते हुए कथन को सापेक्ष एवं निश्वयात्मक बनाता है। इस प्रकार स्यात् शब्द के निम्नलिखित कार्य होते हैं :
१. वस्तु की अनन्तधर्मता को सूचित करना । २. वस्तु में आपेक्षित धर्म का निर्देशन करना । ३. प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित करना। ४. एकान्तता का निषेध करना। ५. प्रकथन को निश्चयात्मक बनाना।
स्यात् शब्द के इन कार्यों का निर्देश डॉ० सागरमल जैन ने भी किया है । उन्होंने कहा है कि यदि हम स्यात् को कथन को अनेकान्तता का सूचक भी मानें तो यहाँ कथन को अनेकान्तता से हमारा तात्पर्य मात्र इतना ही होगा कि "वह (स्यात्) वस्तुतत्व (उद्देश्यपद) की अनन्तधर्मात्मकता को दृष्टि में रखकर उसके अनुक्त एवं अव्यक्त धर्मों का निषेध नहीं करते हुए निश्चयात्मक ढंग से किसी एक विधेय का सापेक्षित रूप में किया गया विधान या निषेध है।" किन्तु यदि कथन को अनेकान्तता से हमारा आशय है कि वह उद्देश्य पद के संदर्भ में एक ही साथ एकाधिक परस्पर विरोधी विधेयों का विधान या निषेध है अथवा किसी एक विधेय का एक ही साथ विधान और निषेध दोनों हो है तो यह धारणा भ्रान्त है और जैन-दार्शनिकों को स्वीकार्य नहीं। इस प्रकार "स्यात्" शब्द की योजना के तोन कार्य हैं, एक कथन या तर्कवाक्य के उद्देश्य पद की अनन्त धर्मात्मकता को सूचित करना, दूसरा विधेय को सोमित या विशेष करना और तीसरे कथन को सोपाधिक (Conditional) एवं सापेक्ष (Relative) बनाना है।
इस प्रकार उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि जैनआचार्यों ने कभी भा "स्यात्" शब्द का अर्थ कदाचित्, संभवतः, शायद, हो सकता है, आदि नहीं किया है। उन्होंने उसे एक निश्चित अर्थ देने का
१. जैन-दर्शन, पृ० ४५. २. महावीर जयन्तो स्मारिका १९७७, पृ० १.४१.
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