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स्याहाद : एक सापेक्षिक दृष्टि प्रयत्न किया है। स्यात् शब्द संशय या अनिश्चयात्मकता का सूचक है; यह कभी भी उन्हें अभिप्रेत नहीं रहा है। हाँ इतनी बात अवश्य है कि जैन-तार्किकों ने स्यात् शब्द के जिन अर्थों को इंगित किया था उनमें अपेक्षित स्पष्टता नहीं आ पायी थी क्योंकि उन्होंने स्वयं भी एक ही प्रतीक "स्यात्" का कई अर्थों में प्रयोग किया था। "स्यात्" शब्द को अनेकान्तता का द्योतक होने के साथ-साथ एकान्तिक प्रकथन का निषेधक तथा विवक्षित अर्थ का सापेक्ष रूप से प्रतिपादक माना गया था । यद्यपि उसकी इन सभी विशेषताओं का स्पष्ट उरलेख प्रारम्भ में तो नहीं किया गया किन्तु अपेक्षानुसार उन्हें स्पष्ट अवश्य किया गया है।
(१) तत्वार्थवार्तिक (अकलंक)-अनेकान्तता का सूचक । (२) अष्टसहस्री (अकलंक)-अनेकान्तता का सूचक एवं कथंचित् अर्थ
का प्रतिपादक । (३) आप्तमीमांसा (समन्तभद्र)-अनेकान्तता का द्योतक एवं विवक्षित
अर्थ का विशेषण। (४) पंचास्तिकायटीका (अमृतचन्द्र)-अनेकान्तता का प्रतिपादक,
एकान्तता का निषेधक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक। (५) स्याद्वादमंजरी (मल्लिषेण)-एकान्तता का निषेधक और अने
कान्तता का प्रतिपादक । "स्यात्" शब्द को सप्तभंगी में क्यों प्रयुक्त किया गया; इस संदर्भ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जैन-आचार्यों के समक्ष वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान एवं उनके अभिव्यक्तीकरण सम्बन्धी अनेक समस्याएँ थीं। उन्हीं समस्याओं के कारण ही जैन-आचार्यों ने प्रत्येक प्रकथन के परिमाणक के रूप में इसका प्रयोग किया है। उनकी वे सभी समस्याएँ अधोलिखित हैं-'
(क) वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता । (ख) मानवीय ज्ञान की अपूर्णता।
(ग) भाषाभिव्यक्ति की सीमितता एवं सापेक्षता । (क) वस्तुओं को अनन्तधर्मात्मकता
जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है-"अनन्त १. जैन-दर्शन और संस्कृति-आधुनिक संदर्भ में, पृ० ५८.
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