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३६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याझ्या तो हुई वस्तु के भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल, चमेली का फूल, मोगरे का फूल या पलास का फूल नहीं है। वह अपने से इतर सभी वस्तुओं से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव भी है। पुनः यदि वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और अव्यक्त पर्यायों (सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गण धर्मों की यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुँच जायेगी। वस्तु के स्वरूप का निर्धारण उसके भावात्मक और अभावात्मक दोनों ही प्रकार के धर्मों के आधार पर होता है। वह क्या है और क्या-क्या नहीं है-इन दोनों से मिलकर वह अपना वस्तु-स्वरूप पाती है। कुर्सी को कुर्सी होने के लिये केवल इतना पर्याप्त नहीं है कि उसमें कुर्सी के गुणधर्म हैं अपितु उसकी मेज आदि से भिन्नता भी आवश्यक है। अतः यह कथन सत्य ही है कि वस्तुतत्व अनन्त धर्मों, अनन्त गुणों एवं अनन्त पर्यायों का पुंज है" ।'
यद्यपि हमारी अनुभूति में वस्तुओं के कुछ ही गुणधर्मों का ग्रहण होता है किन्तु उसमें मात्र उतने ही गुणधर्म नहीं होते। वस्तु में तो ऐसे भी अनेक गुणधर्म हैं जिनका ज्ञान हमारी सामान्य अनुभूति से परे है । उन सबका ज्ञान केवल सर्वज्ञ को ही हो पाता है। वस्तुतः वस्तु नाना रूपवती सत्ता है। एक-एक प्रकथन उस नाना रूपवती सत्ता के एक-एक अंश का प्रतिपादन करने में अपना महत्त्व रखता है। यह सम्भव है कि वस्तु स्वरूप सम्बन्धी दो भिन्न प्रकथन परस्पर विरोधी प्रतीत हों; किन्तु फिर भी, उनमें आपस में किसी प्रकार का विरोध नहीं होता है क्योंकि दोनों ही कथ्य धर्म अपेक्षा भेद से उस वस्तु में विद्यमान हैं। स्वयंभूस्तोत्र में यह कहा गया है कि "विधि और निषेध दोनों कथंचित् इष्ट हैं विवक्षा से उनमें मुख्य-गौण की व्यवस्था होती है ।२ इसका आशय यही है कि विधि और निषेध, यद्यपि परस्पर विरोधी हैं किन्तु वस्तु के स्वरूपनिर्धारण में दोनों की अपेक्षा है। इन दोनों में से किसी एक के अभाव में वस्तु का अपना स्वरूप नहीं बन सकता; अन्यथा वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी। १. द्रष्टव्य-जैन-दर्शन और संस्कृति : आधुनिक संदर्भ में, पृ० ५८. २. विधिनिषेधश्च कथञ्चिदिष्टौ ।
विवक्षया मुख्य-गुण-व्यवस्था ॥ -स्वयंभूस्तोत्र, का० २५.
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