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अनेकान्तिक दृष्टि का विकास हमने पीछे कहा है कि कुर्सी को होने के लिए उसमें मेज के गुण-धर्मों का अभाव होना ही चाहिए। अतः वस्तु को वस्तु होने के लिए उसमें अभावात्मक गुण-धर्म का निषेधात्मक पक्ष भी स्वीकार्य है ।
वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है। मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुणधर्म मान लेती है वे भी एक ही वस्तुतत्त्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ हम प्रतिदिन यह व्यवहार में देखते हैं कि एक ही व्यक्ति पितृत्व और पुत्रत्व अथवा भ्रातृत्व और पतित्व आदि विरोधी गुणधर्मों से सम्पन्न है। वस्तुतः जो व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है वही व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता भी है। इतना ही नहीं, एक ही आम्रफल में अम्लता के साथ ही मधुरता भी विद्यमान रहतो है; क्योंकि यदि कच्चे आम्रफल में भी व्यक्त या अव्यक्त रूप से मधुरता का गुण न होता तो पकने पर वह मधुरता के गुण से युक्त नहीं हो पाता। अतः उसमें अपेक्षाभेद से अम्लता के साथ ही मधुरता भी विद्यमान रहती है। उसमें अन्तर सिर्फ इतना ही होता है कि उसके कच्चेपन में अम्लता की प्रधानता रहती है और पकने पर मधुरता को । यदि उसमें किसी एक भी गुण का नितान्त अभाव होता तो निश्चय हो कालान्तर में उस गुण का व्यक्त होना कथमपि संभव नहीं होता। परन्तु कालान्तर से वह गुण व्यक्त होता है और उसकी अनुभूति भी होती है। अतः उसमें अपेक्षा भेद से दोनों गुणों का रहना संभव है।
इसी प्रकार एक ही वस्तु में अनेक परस्पर विरोधी गुणधर्म अपेक्षाभेद से विद्यमान रहते हैं। जैन आचार्यों के अनुसार वस्तुएँ अनेक धर्मात्मक होने के साथ ही परस्पर विरोधी धर्म युगलों से भी युक्त होती हैं। अतः वे सदसदात्मक, नित्यानित्यात्मक, भावाभावात्मक भी हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि सभी वस्तुएँ अनेक धर्मात्मक होने के कारण अनेकान्त स्वभाव वाली होती हैं......जो तदात्मक है वह अतदात्मक है, जो एकान्तात्मक है वह अनेकान्तात्मक है, जो सदात्मक है वह असदात्मक
१. कीदृशं वस्तु ? नानाधर्मयुक्तं विविध स्वभावैः सहितं कथंचित् अस्तित्वनास्तित्वैकत्वानेकत्वनित्यत्वानित्यत्वभिन्नत्वाभिन्नत्वप्रमुखैराविष्टम् ।
-स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाटीका, गा० २५३.
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