________________
३८ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या भी है।' अर्थात् नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि परस्पर विरोधी धर्म युगल एक ही वस्तु के दो पक्ष या पहलू हैं। वे एक ही वस्तु में सदा अपेक्षाभेद से विद्यमान रहते हैं। सर्वथा नित्यत्व और सर्वथा अनित्यत्व स्वरूप कोई वस्तु नहीं। नित्यता और अनित्यता दोनों को एक दूसरे की अपेक्षा है। नित्यता के बिना अनित्यता और अनित्यता के बिना नित्यता और इसी प्रकार एकता के बिना अनेकता और अनेकता के बिना एकता का कोई अर्थ नहीं; वे परस्पर सापेक्ष हैं। डा० सागरमल जैन के शब्दों में अस्तित्व नास्तित्वपूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्वपूर्वक है। एकता में अनेकता और अनेकता में एकता अनुस्यूत है, जो द्रव्य दृष्टि से नित्य है, वही पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है। उत्पत्ति के बिना विनाश
और विनाश के बिना उत्पत्ति नहीं है । पंचास्तिकाय में भी कहा गया है कि किसी भाव अर्थात् सत्त्व का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत्त्व का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ (धर्म) अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद-व्यय करते रहते हैं। लोक में जितने सत् हैं वे त्रैकालिक सत् हैं। उनकी संख्या में कभी भी हेर-फेर नहीं होता। उनके गण और पर्यायों में परिवर्तन अवश्यम्भावी है। उसका कोई अपवाद नहीं हो सकता।'
पुनः उत्पत्ति और विनाश के लिए ध्रौव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा; क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव से उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति नहीं है। यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है। यही कारण है कि जैन आचार्यों
१. "स तु सर्वमनेकांतात्मकमित्यनुशास्ति'"....तत्र यदेव तत्तदेवातत् यदेवैक तदेवानेकं यदेव सत्तदेवासव यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येव वस्तु ।
-समयसार गा० २४७ की टीका. २. जैन-दर्शन और संस्कृति : आधुनिक संदर्भ में, पृ. ५९. ३. भावस्स णत्थि णासो णत्थिअभावस्स चैव उप्पादो। गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति ।।
-पंचास्तिकाय, का. १५.. ४. जैन-दर्शन और संस्कृति-आधुनिक संदर्भ में, पृ० ५९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org