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________________ ३९ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास ने वस्तु या सत्ता को परिणामी नित्य कहा है। उनका कहना है कि पदार्थ सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य नहीं है किन्तु परिणामी नित्य है। परिणामी नित्य का अर्थ है-"प्रतिसमय निमित्त के अनुसार नाना रूपों में परिवर्तित होते हुए भी अपने मूल स्वरूप का परित्याग न करना।" प्रत्येक द्रव्य हर समय अपने निमित्तों के कारण अपने मूल स्वरूप का परित्याग किये बिना परिवर्तित होता रहता है अर्थात् उसका निमित्त उसको विभिन्न पर्यायों (अवस्थाओं) में बदलता रहता है। जैसे यद्यपि स्वर्णकार के कारण स्वर्ण का विभिन्न रूपों में परिवर्तन होता रहता है। फिर भी स्वर्ण अपने स्वर्णत्व गुण को नहीं छोड़ता है। पर्यायों को यह परिवर्तनशीलता ही द्रव्य का परिणमन कहलाती है। इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक द्रव्य में नित्यता-अनित्यता दोनों ही धर्म विद्यमान हैं। एक ऐसा है जो तीनों कालों (भूत, भविष्य और वर्तमान) में शाश्वत है और दूसरा ऐसा है जो सदा परिवर्तनशील है। इसी शाश्वतता के गुण-धर्म के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रौव्यात्मक अर्थात् स्थिर है और परिणमनशीलता के कारण प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्ययात्मक अर्थात् अस्थिर है। यही कारण है कि महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य समन्वय करते हुए, अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तु-तत्त्व को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कहकर परिभाषित किया।' वस्तुतः प्रत्येक वस्तु में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तीनों गुण विद्यमान हैं। ध्रौव्य गुण नित्यता और उत्पाद एवं व्यय (उत्पत्ति और विनाश) अनित्यता के परिचायक हैं। यद्यपि उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यता के गुण एक दूसरे से भिन्न हैं फिर भी, वे एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं । यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को एक दूसरे से स्वतन्त्र या निरपेक्ष मानें, तो उनमें से किसी की भी सत्ता नहीं रह जायेगी; क्योंकि उत्पाद के बिना व्यय और ध्रौव्य का कोई अर्थ नहीं, कोई अस्तित्व नहीं । इसी प्रकार ध्रौव्य के बिना उत्पाद और व्यय भी असम्भव है; क्योंकि उत्पाद और व्यय का आधार कोई वस्तूतत्व होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि तीनों उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को एक दूसरे की अपेक्षा है। अतः विश्व की व्यवस्था में तीनों का रहना आवश्यक है। द्रव्य-स्वरूप का लक्षण करते हुए सन्मति-तर्क में कहा गया है कि उत्पाद १. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्-तत्त्वार्थसूत्र - ५:२९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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