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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
एवं नाश रूप पर्यायों से रहित द्रव्य नहीं होता और द्रव्य अर्थात् ध्रुवांश से रहित पर्याय नहीं होते, क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, ये तीनों द्रव्य -सत् के लक्षण हैं । "
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जैन- दार्शनिकों ने इन्हीं तीनों शक्तियों ( उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ) को त्रिपदी पद से भी संबोधित किया है । भगवतीसूत्र में इस त्रिपदी का निर्देश करते हुए कहा गया है - ' उप्पन्नेवा विगयेवा धुवेवा' । जैन - दर्शन के अनुसार यही त्रिपदी अनेकान्तवादी विचार पद्धति का आधार है । स्याद्वाद और नयवाद सम्बन्धो विपुल साहित्य मात्र इसका विस्तार है । त्रिपदी ही जिन द्वारा वपित "बीज" है जिससे स्याद्वाद रूपी वट वृक्ष विकसित हुआ है । यह वस्तुतत्त्व के अनेकान्तिक स्वरूप को सूचक है जिसका स्पष्टीकरण भगवतीसूत्र के विविध प्रसंगों में किया
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गया है । उदाहरणार्थ जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि भगवन् ! जीव नित्य है या अनित्य ? तब महावीर ने उत्तर देते हुए कहा कि गौतम ! जीव अपेक्षा भेद से नित्य भी है और अनित्य भी । पुनः गौतम ने पूछा भगवन् ! यह कैसे ? तब महावीर ने बताया कि गौतम ! द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य ।
इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल से कहा था कि सोमिल ! द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतना की अवस्थाओं (पर्यायों) की अपेक्षा से मैं अनेक भी हूँ । इसी प्रकार भगवती सूत्र में वस्तुतस्त्व की अनन्तधर्मात्मकता और उसकी अनेकान्तिकता का प्रतिपादन बहुत ही विस्तार से किया गया है ।
१. दव्वं पज्जविउयं दव्व विउत्ता या पज्जवा णत्थि । उपाय-द्वि-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ||
- सिद्धसेन दिवाकर कृत- सन्मतितर्कप्रकरणम् भाग ३, १:१२. २. द्रष्टव्य - जैन- दर्शन और संस्कृति : आधुनिक सन्दर्भ में, पृ० ५९ । ३. गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया
गोयमा ! दव्वट्टयाए सासया भावट्टयाए असासया ।
४. भगवतीसूत्र भाग ६, १८:१०:१८ ।
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— भगवतीसूत्र, भाग ३,७:२:२३.
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