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________________ अनेकान्तिक दृष्टि का विकास इस प्रकार आनुभविक एवं शास्त्रीय साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक, अनेकान्तिक एवं अनेक विरोधी धर्म युगलों वाली हैं। परन्तु यहाँ कुछ आचार्यों का यह भी कहना है कि एक ही वस्तु तत्व में समस्त विरोधी धर्म युगलों का रहना सम्भव नहीं है; क्योंकि ऐसा होने पर एक हो चेतन्य स्वरूप आत्मा को चेतन-अचेतन दोनों ही मानना पड़ेगा। जबकि जो चेतन है उसे अचेतन और जो अचे. तन है उसे चेतन नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जो सुन्दर है उसे असुन्दर और जो असुन्दर है उसे सुन्दर नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः चैतन्य और अचैतन्य, सुन्दर और असुन्दर आदि विरोधी धर्म युगलों का एकाश्रयी सिद्ध करना कथमपि सम्भव नहीं है । धवला में भी कहा गया है कि यदि ( वस्तू में ) सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जाय तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग भी आ जायेगा। सत्य यह है कि जिन धर्मों का वस्तु तत्त्व में अत्यन्ताभाव है उन धर्मों का उसमें उपस्थित रहना कथमपि संभव नहीं है। किन्तु जैन आचार्यों के अनुसार यदि ये परस्पर विरोधी धर्मयुगल वस्तु में नहीं हैं तो भी इससे वस्तु के अनन्त धर्मात्मकता का हनन नहीं होता। वस्तुएँ तो अनन्त धर्मात्मक हैं ही। उसमें नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, भेदत्व-अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्म-यगलों का रहना भी सम्भव है। उसमें यदि किन्हीं धर्म युगलों का रहना सम्भव नहीं है तो वे हैं उसकी सत्ता के निर्धारक भावात्मक धर्मयुगल । पर उसका निषेधात्मक धर्मयुगल तो है ही। वस्तुतः जब जैन-आचार्य अचैतन्य धर्म को आत्मा में घटाते हैं तब उनके उस कथन का प्रतिपाद्य यही होता है कि आत्मा में 'अचैतन्यता का अभाव' रूप धर्म है। उनके इस कथन से भी तो आत्मा की चेतनता की ही पुष्टि होती है। वस्तुतः उसकी अनेकान्तता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोगव्यवच्छेदिका में वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएँ स्याद्वाद के मुद्रा से युक्त हैं कोई भी उसका १. (अ) धवला खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० १६७ । (ब) जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश भाग १, पृ० ११३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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