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स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि "स्यात्" शब्द को अभीष्ट वचन का द्योतक माना है और श्री निम्बार्काचार्य ने उसे किंचित् अर्थ का बोधक कहा है। इसी प्रकार श्रीकण्ठाचार्य ने "स्यात्" पद को ईषत् अर्थ वाला शब्द माना है किन्तु स्यात् पद के इन अर्थों से स्याद्वाद का अभिधेय ठीक रूप में प्रतिफलित नहीं होता है क्योंकि 'स्यात्" शब्द न तो मात्र अभीष्ट वचन का द्योतक है और न तो किंचित् अर्थ का सूचक और न ईषत् अर्थ वाला ही है। बल्कि वह अपेक्षाभेद का सूचक तथा वस्तु की समग्रता का द्योतक है। "स्यात्" शब्द का वाच्यार्थ ही है अपेक्षाभेद। इसी अपेक्षाभेद से ही वस्तुओं में अनन्तधर्मता आदि को स्वीकार किया गया है। यदि इस अपेक्षाभेद अर्थ को छोड़कर अभीष्ट अर्थ ही किया जाय तो वस्तु में अनभीष्ट धर्मों की उपेक्षा हो जायेगी और इसी प्रकार किंचित् अर्थ मानने पर भी विरोध उत्पन्न होता है। कुछ है और कुछ नहीं है इस प्रकथन में सापेक्षता का लोप हो जाता है। जबकि जैन-दर्शन में “स्यात्" पद से सापेक्ष कथन ही अभीष्ट है। इसी प्रकार ईषत् अर्थ युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता है। वस्तुतः "स्यात्" पद के उपर्युक्त अर्थ भ्रान्तिमूलक ही हैं।
__"स्यात्" शब्द या स्याद्वाद के संदर्भ में इस तरह की भ्रान्तियाँ क्यों उत्पन्न हुई ? इस प्रसंग में डॉ. महेन्द्र कुमार जैन का कथन है कि "वैदिक आचार्यों ने स्याद्वाद को गलत रूप में प्रस्तुत किया ही था जिसका संस्कार आज के विद्वानों के मस्तिष्क में बना हुआ है और वे उसी संस्कार के वशीभूत होकर "स्यात्" शब्द का अर्थ 'शायद", "संभवतः", "कदाचित्" आदि करते हैं ।४ डॉ० जैन का यह कथन युक्तिसंगत ही प्रतीत होता है; क्योंकि डॉ० बलदेव उपाध्याय ने आचार्य शंकर की वकालत करते हुए लिखा है कि "यह निश्चित ही है कि इसी समन्वय दृष्टि से वह पदार्थों के विभिन्न रूपों का समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनुस्यूत परमतत्त्व तक पहुँच जाता। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर शंकराचार्य ने १. “स्याच्छब्दोऽभीष्ट वचनः" ।
-अणुभाष्यम्, २:२:३३ । २. श्री निम्बार्क भाष्यम्, २:२:३३ । ३. ..."स्याच्छब्द ईषदर्थः" ।
-श्रीकण्ठ भाष्यम्, २:२:३३ । ४. जैन-दर्शन, पृ० ३९६ ।
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