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________________ ६६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या उपलब्ध हो तो वह भी अनुचित ही है क्योंकि यह अर्थ स्याद्वाद के सन्दर्भ में ठीक-ठीक बैठता नहीं है । अतः "स्यात्" पद का "कदाचित्" यह अर्थ करना भी उपयुक्त नहीं है। डॉ० राधाकृष्णन् भी “स्यात्' पद के उपर्युक्त अर्थ पर हो बल देते हैं । उन्होंने लिखा है कि "यह (स्याद्वाद) समस्त ज्ञान को केवल सम्भावित रूप में ही मानता है। प्रत्येक स्थापना “सम्भव है", "हो सकता है" अथवा शायद इत्यादि रूपों में ही हमारे सामने आती है। हम किसी भी पदार्थ के विषय में निरुपाधिक या निश्चित रूप से स्वीकृतिपरक अथवा निषेधात्मक कथन नहीं कर सकते । वस्तुओं के अन्दर अनन्त जटिलता होने के कारण निश्चित कुछ नहीं है। (यह सिद्धान्त) यथार्थ सत्ता के अत्यधिक जटिल एवं अनिश्चित स्वरूप के ऊपर बल देता है।' __ यद्यपि यह सत्य है कि स्याद्वाद निरुपाधिक अखण्ड सत्य को वचनबद्ध करने का दावा नहीं करता और हमें सापेक्ष सत्य की ही दिशा में ले जाता है। तथापि यह ज्ञान को सम्भावित रूप में न मानकर निश्चयात्मक रूप में ही स्वीकार करता है। यह सत् के सन्दर्भ में एक निश्चित, व्यापक या समग्र दृष्टि लेकर चलता है। जैन-दर्शन में संशय या सम्भाव्यता अथवा अनिश्चयात्मकता के निराकरण के लिए ही "स्यात्" पद के साथ "ही" (एवकार) लगाने की योजना को गयो है। "स्यात्" अनेकान्तता का द्योतक, निश्चित अपेक्षा का सूचक तथा कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक है। अतः “स्यात्" पद को संभव, शायद, हो सकता है आदि इन रूपों में ग्रहण करना सर्वथा अनुचित है, और इस रूप में ग्रहण करने पर स्याद्वाद में संशय की ही प्रधानता होती है। जबकि स्याद्वाद के माध्यम से प्रत्येक स्थापना या प्रकथन हमारे समक्ष निश्चित रूप में आता है सम्भव या शायद के रूप में नहीं। इस तथ्य की पुष्टि हमने पिछले प्रकरण में की है। अतः "स्यात्" पद का अर्थ सम्भव है, हो सकता है, शायद आदि करना ठीक नहीं है। इन आधुनिक दार्शनिकों के अतिरिक्त कुछ भाष्यकारों ने भी “स्यात्" शब्द का अर्थ जेन-आचार्यों के विपरीत किया है। जैसे श्री वल्लभाचार्य ने १. भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० २७७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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