________________
स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि
६५
अर्वाचीन भारतीय चिन्तकों में डॉ० बलदेव उपाध्याय, डॉ० देवराज और डॉ० राधाकृष्णन् को भी यही भ्रान्ति हुई हैं । इस संदर्भ में सर्वप्रथम डॉ॰ बलदेव उपाध्याय जी को ही देखिये । उन्होंने लिखा है - " स्यात्" ( शायद, सम्भवतः ) शब्द को अस् धातु के विधिलिङ् के तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है । घड़े के विषय में हमारा मत स्यादस्ति सम्भवतः यह विद्यमान है इसी रूप में होना चाहिए ।"" किन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय द्वारा प्रदत्त " स्यात् " पद का यह अर्थ जैन-ग्रन्थों में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । जैन आचार्यों ने सर्वत्र " स्यात् " पद को निपात ही कहकर परिभाषित किया है और उसे अपेक्षाभेद का सूचक बताया है। यदि उसका अर्थ अपेक्षाभेद न करके सम्भवतः आदि ही किया जाय तो उससे संशयात्मकता की ही उद्भावना होती है । अतः स्यात् का अर्थ संभवतः आदि करना सर्वथा अनुचित और जैन दृष्टिकोण के विपरीत है ।
हम पूर्व में बता चुके हैं कि " स्यात् " निपात और निपात एक निश्चित अर्थ वाला होता है निपात के लिए प्रदत्त या आरोपित अर्थ के अतिरिक्त दूसरा अर्थ असह्य होता है । अतः उसका प्रयोग सर्वदा और सर्वत्र उसी प्रदत्त अर्थ में ही करना चाहिए। किन्तु निपात के इस लक्षण के विपरीत डॉ० देवराज ने " स्यात् " निपात का अर्थ " कदाचित्" किया है । यद्यपि उन्होंने हिन्दी में इसका अर्थ " अपेक्षा - विशेष" ही किया है तथापि इस अर्थ को कोष्ठक में रखकर मुख्यता " कदाचित् " को ही प्रदान की है । "कदाचित् " का अर्थ होता है किसी समय । इसके इस अर्थ से फलित होता है कि वस्तु में अमुक-अमुक धर्मं अमुक-अमुक समय में हैं और अमुक-अमुक समय में नहीं हैं । जैसे स्यादस्त्येव घटः का अर्थ होगा किसी समय में घट में घटत्व धर्म है ही । किन्तु जैन आचार्यों ने वस्तु में जिन-जिन धर्मों का सद्भाव माना है वे काल सापेक्ष नहीं हैं; वे सर्वदा वस्तु में विद्यमान रहते हैं | वस्तुतः " स्यात् " पद का " कदाचित् " अर्थ भी भ्रामक और जैनदृष्टिकोण के विपरीत है । यदि इसका यह अर्थ जैन-ग्रन्थों भी कहीं
१. भारतीय दर्शन - पृ० १५५ ।
२. देखिये- आप्तमीमांसा १०३, पंचास्तिकाय टीका, स्याद्वादमञ्जरी, अष्टसहस्री, अष्टशती आदि ।
३. " पूर्वी और पश्चिमी दर्शन", पृ० ९४ ।
५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org