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________________ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या पुनश्च प्रत्येक वस्तुतत्त्व अनेक विरुद्ध धर्मं-युगलों का अखण्ड पिण्ड है । इन विरुद्ध धर्म युगलों का एक साथ प्रतिपादन असंभव है । उन्हें क्रमिक रूप से ही कहा जा सकता है । जब प्रत्येक प्रकथन में वस्तु के एक-एक धर्म के ही प्रतिपादन की शक्ति है तो अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों का युगपत् प्रतिपादन कैसे संभव हो सकता है ? अतः किसी भी प्रकथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त रह ही जायेंगे। तब यह आवश्यक है कि हमारा प्रकथन उसी समय वस्तुतत्त्व में विद्यमान अविवक्षित शेष धर्मों की उपस्थिति का निषेधक नहीं है, इस बात को सूचित करने के लिए प्रकथन में किसी प्रतीक का प्रयोग किया जाय जैन आचार्यों के अनुसार वह प्रतीक " स्यात् " है जो एक ओर अन्य अविवक्षित धर्मों की उपस्थिति का सूचक है तो दूसरी ओर उस अपेक्षा को स्पष्ट करता है जिसके आधार पर किसी विवक्षित गुण-धर्म का विधान या निषेध किया गया है । इस प्रकार " स्यात् " शब्द किसी एक सुनिश्चित दृष्टिकोण से वस्तु में उपस्थित विवक्षित धर्म के विधान या निषेध के साथ अन्य अविवक्षित धर्मों के अस्तित्व को भी द्योतित करता है। साथ ही उस अपेक्षा को भी स्पष्ट करता है जिसके आधार पर प्रकथन किया गया है। चूंकि भाषा में कोई भी ऐसा शब्द नहीं है जो प्रकथन के इतने बड़े उद्देश्य की पूर्ति कर सके | अतः जैन आचार्यों ने " स्यात्" शब्द के जो कि उनके अपेक्षित अर्थ के निकट था, एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त कर इस उद्देश्य की प्रतिपूर्ति की । " स्यात् " पद को उक्त विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त करने का यही संक्षिप्त कारण है । ६४ " स्यात्" शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में विभिन्न भ्रान्तियाँ एवं उनका निराकरण जैन दर्शन में " स्यात् " शब्द ही स्याद्वाद सम्बन्धी समस्त भ्रान्तियों का मूल है । इसके अर्थ के संदर्भ में सम्भवतः जितनी भ्रान्तियाँ हैं उतनी अन्य किसी शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में नहीं । जिस अर्थ में जैन- दार्शनिकों ने " स्यात् " शब्द का प्रयोग स्याद्वाद में किया था उस सांकेतिक अर्थ को जैनेतर दार्शनिकों ने ग्रहण नहीं किया । अर्वाचीन एवं प्राचीन सभी दार्शनिक " स्यात् " पद को संस्कृत भाषा का एक सामान्य शब्द मानकर उसके व्युत्पत्तिपरक अर्थ के आस-पास घूमते रहे और स्याद्वाद के मूल रहस्य से अपरिचित रहकर उस पर तरह-तरह के आक्षेप करते रहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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