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स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि
६३ और आगे बढ़कर कहा है कि "हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा।"" क्योंकि वस्तुतत्त्व मात्र उतना ही नहीं है जितना कि हम ग्रहण कर पा रहे हैं। हमारी ऐन्द्रिक ज्ञान, शक्ति एवं तर्कबुद्धि इतनी सीमित एवं अपूर्ण है कि वह वस्तुतत्त्व को सम्पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं कर सकती। यदि किसी प्रकार उसका अपनी सम्पूर्णता में ग्रहण भी हो जाय तो भी वाणो के द्वारा उसका सम्पूर्ण रूप से प्रकाशन असंभव ही है। वस्तुतः अपने वचनव्यापार को यथार्थ बनाने एवं अपने और दूसरों के अनुभूत तथा अननभत सत्यों का निषेध न करने के लिए किसी न किसी कथन पद्धति की योजना करनी ही होगी जो कथन में अप्रयोजित सत्यों का निराकरण न करते हए अपनी बात को स्पष्ट कर सकें। इस कार्य के लिए जैन-आचार्यों ने "स्यात्" शब्द को योजना की। (ग) भाषाभिव्यक्ति को सीमितता एवं सापेक्षता
जैन-आचार्यों की दृष्टि में सर्वज्ञ या पूर्ण सत्य द्रष्टा के लिए भी जो कि सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, उस सत्य का निरपेक्ष प्रकथन असंभव है; अर्थात् सम्पूर्ण सत्य को जानना यदि संभव है तो भी उसका अभिव्यक्तीकरण संभव नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति का जब कभी भी कोई प्रयास किया जाता है तो वह सापेक्षिक बन जाता है क्योंकि भाषा का कोई भी ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तु के पूर्ण रूप को स्पर्श कर सके। हर एक शब्द एक निश्चित गुण-धर्म के लिए ही प्रयुक्त होता है। इतना ही नहीं, वस्तुतत्त्व में कितने ऐसे भी धर्म हैं जिनके प्रकाशन के लिए भाषा के पास कोई शब्द नहीं है; अर्थात् वस्तु तत्त्व के अनेक ऐसे धर्म हैं जो अनुक्त ही रह जाते हैं। उदाहरणार्थ-गुड़ को मिठास, चोनी की मिठास, आम, अमरूद आदि-आदि फलों की मिठास को मीठा शब्द से ही सम्बोधित करते हैं जबकि हर-एक की मिठास एक दूसरे से भिन्न है। वस्तुतः प्रत्येक विशिष्ट प्रकार की मिठास के प्रकाशन के लिए भाषा में भिन्न-भिन्न शब्द होने चाहिए किन्तु ऐसा है नहीं। १. "We can only know the relative truth, the real truth is known only to the Universal Observer."
-Quoted in Jain-Darsana and Sanskriti, p. 62.
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