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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
इस स्याद्वाद का मार्मिक खण्डन अपने शारीरक भाष्य (२-२-३३) में प्रबल युक्तियों के सहारे किया है।"१ यद्यपि डॉ० उपाध्याय ने शंकर से इतर रहकर स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को संशयवाद नहीं माना है क्योंकि उन्होंने लिखा है कि "यह अनेकान्तवाद संशयवाद का रूपान्तर नहीं है"२ फिर भी, इनके आलोचना को प्रवृत्ति संशयवाद के तरफ ही है, और वह आचार्य शंकर के प्रभाव का प्रतिफल है इसी प्रकार अन्य दार्शनिकों को भी समझाना चाहिए। ___ अब प्रश्न यह है कि यदि आधुनिक दार्शनिकों में वैदिक-आचार्यों के प्रभाव से स्याद्वाद को गलत रूप में समझने की भ्रान्ति हुई तो वैदिक आचार्यों को यह भ्रान्ति क्यों हुई ? इनका दायित्व किसी सीमा तक जैनआचार्यों पर ही आता है । वस्तुतः स्याद्वाद की व्याख्या में भाषा सम्बन्धी कुछ अस्पष्टता रही है जिसके कारण वैदिक आचार्य भ्रमित हुए। जैनआचार्यों के स्याद्वाद सम्बन्धी प्रकथनों में उस अस्पष्टता के कारण उनके अभिव्यक्तीकरण में ही विरोध प्रतीत होने लगा और उस विरोध की प्रतीति ब्रह्मसूत्रकार बादरायण को हुई और उन्होंने "नैकस्मिन्नसम्भवात्" कहकर उसकी आलोचना की । बादरायण के इसी सूत्र पर श्री शंकराचार्य ने भाष्य लिखा और स्याद्वाद को संशय दोष से युक्त बताया। उस संशय दोष की सिद्धि के लिए आधुनिक आचार्यों ने स्यात् शब्द का व्यत्पत्तिपरक अर्थ प्रस्तुत किया । यदि सर्वप्रथम जैन-आचार्यों ने ही इस सम्बन्ध में सतर्कता बरती होती तो शायद इस तरह की भ्रान्तियाँ उत्पन्न न हई होती। जैनविचारकों के अभिव्यक्तीकरण में मुझे अधोलिखित त्रुटियाँ प्रतीत होती हैं(अ) सप्तभंगी के प्रथनों में स्यादस्ति, स्यान्नास्ति कहकर वस्तु का हो
विधान और निषेध करना। (ब) प्रत्येक वस्तु को न केवल सर्व धर्माश्रयी अपितु विरोधी धर्म युगला
श्रयी सिद्ध करना। (स) प्रत्येक भंग के उद्देश्य और विधेय को पूर्णतया स्पष्ट न करना। (द) प्रत्येक भंग को एक निश्चित मूल्य न दे पाना। (य) एक ही प्रतीक रूप "स्यात्' पद को अनेक अर्थों का द्योतक बताना । १. भारतीय-दर्शन, पृ० १७५ । २. वही, पृ. १७४ ।
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