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________________ १८४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या द्रष्टव्य है-सप्तभङ्गी का प्रत्येक भङ्ग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता है। सप्तभङ्गी में “स्यात् अस्ति" आदि जो सात भङ्ग हैं; वे कथन के तार्किक आकार मात्र हैं। उनमें स्यात् शब्द कथन की सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक (अफरमेटिव) और निषेधात्मक (निगेटिव) होने के सूचक हैं। कुछ जैन विद्वान् अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को अभावात्मकता का सूचक मानते हैं। किन्तु यह दृष्टिकोण जैन-दर्शन को मान्य नहीं हो सकता । उदाहरण के लिए जैन-दर्शन में आत्मा भाव रूप है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है। अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आप में कोई कथन नहीं है; अपितु कथन के तार्किक आकार हैं। वे कथन के प्रारूप हैं, उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख आवश्यक है। जैसे–स्यात् अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगा-द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्यात् आत्मा अस्ति तो ऐसे कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देंगे। आधनिक तर्कशास्त्र की दष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है, जिसे हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है और सप्तभङ्गी में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए उसे सांकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है। सप्तभङ्गी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमने चिह्नों का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है : अर्थ यदि""तो (हेतुफलाश्रित कथन) अथवा अन्तर्भूतता (इम्प्लीकेशन) अपेक्षा (दृष्टिकोण) संयोजन (और) युगपत्भाव (एक साथ) अनन्तत्व व्याघातक (विरुद्ध), निषेधक उद्देश्य विधेय न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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