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समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १८३ का निषेधक हो । किन्तु नास्ति भंग अस्ति भंग का निषेधक नहीं है। यह अस्ति भंग में कहे गये विषय से भिन्न विषय का कथन करता है। इसलिए इसे विधेयात्मक कथन के रूप में ही लिया जा सकता है, निषेधात्मक भंग के रूप में नहीं। यदि जैन आचार्य प्रथम भंग में "गाय श्वेत हैं" ऐसा कहकर नास्ति भंग में "गायें श्वेत नहीं हैं" ऐसा कहते तो निषेधात्मक या असत्य तर्कवाक्य बनता; किन्तु वे प्रथम भंग में “गायें श्वेत हैं" ऐसा कहने के पश्चात् "नास्ति भंग में “गायें काली नहीं हैं" ऐसा कहते हैं । इसलिए वहाँ असत् तर्कवाक्य नहीं बनता है।
(२) दूसरी कठिनाई यह है कि जैनाचार्यों ने सप्तभंगी के मिश्रित कथनों को सांयोगिक कथन कहा है। इसलिए वे संयोजक कथन है न कि वैकल्पिक । थोड़ा ध्यान देने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भंगों में वैकल्पिक को नहीं घटाया जा सकता है जैसे स्यादस्ति च नास्ति का "किसी अपेक्षा से घट में घटत्व धर्म है और तदितर नहीं है" ऐसा अर्थ होता है न कि किसी अपेक्षा से या तो घट है या नहीं है। वस्तुतः उसे संयोजक कथन ही कहना चाहिए।
(३) तीसरी कठिनाई यह है कि जब सप्तभंगी में निरपेक्षतः सत् और असत् सत्यता-मूल्य नहीं बनता है; तब उसकी तुलना द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र से किस प्रकार की जा सकती है ? द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र तो दो ही (सत्य और असत्य) सत्यता-मूल्यों पर चलता है। इसलिए उसके आधार पर सप्तभंगी को प्रमाणित करने का प्रयास करना व्यर्थ है। यदि किसी तरह अस्ति भंग को सत् और नास्ति को असत् मान भी लिया जाय तो नास्ति भंग दुनयता को प्राप्त हो जायेगा ? जो कि जैन सिद्धान्त के विपरीत है। इसलिए उसे असत् या शून्य मूल्यवाला नहीं कहा जा सकता है। जैन विचारणा के अनुसार सत्यता और असत्यता अपेक्षा विशेष से प्रत्येक भंग में पायी जाती है। अतएव जैन-सप्तभंगी द्वि-मूल्यीय नहीं है।
सन् १९७७ में सप्तभंगी के तार्किक स्वरूप के सन्दर्भ में डॉ० सागरमल जैन ने एक लेख प्रकाशित कराया था। उन्होंने उस लेख में यह प्रदर्शित किया था कि सप्तभंगी हेतुफलाश्रित है और उन्होंने हेतुफलाश्रित तर्कवाक्य के आधार पर सप्तभंगी के प्रतीकात्मक स्वरूप का प्रतिपादन किया है। सप्तभङ्गी की प्रतीकात्मकता के सन्दर्भ में उनका यह लेख
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