SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १९३ विस्तारण तादात्म्य कथन होते हैं; जो कि जैनदर्शन को मान्य नहीं है । जैन विचारणा इसे भिन्न-भिन्न मानकर चलती है।' वास्तव में, सप्तभंगी आंशिक है लेकिन यथार्थ है, जो है वह अवश्य है लेकिन सीमित है, सापेक्ष है न कि निरपेक्ष, संभाव्य या संभावनात्मक | सप्तभंगी का 'स्यात्" पद संभाव्य नहीं है वह अपेक्षा विशेष है। यद्यपि वह खण्डशः कथन करता है किन्तु वास्तविक है। इसलिए संभाव्यतातर्कशास्त्र से यह तुलनीय नहीं है। किन्तु इसको संभाव्यतातर्कशास्त्र से आकृतिगत समानता है । अतएव सप्तभंगी के लिए संभाव्यतातर्कशास्त्र से आकृति प्राप्त की जा सकती है। संभाव्यतातर्कशास्त्र से सप्तभंगी की तुलना का यदि कोई प्रयास किया जाय तो उसका एक मात्र कारण यही है कि संभाव्यतातर्कशास्त्र में जितने मूल्य चाहें उतने मूल्य मान सकते हैं। इसलिए उसके आधार पर सप्तभंगी के लिए भी सात मूल्य को माना जा सकता है । उपर्युक्त लेख में डॉ० आर० एन० मुकर्जी ने मात्र इसी संभावना को अभिव्यक्त किया है। यद्यपि उनका उक्त लेख पूर्णतः निर्दोष नहीं है उसमें भी कुछ न कुछ कमियाँ अवश्य हैं किन्तु सप्तभंगी की सप्त-मूल्यता के निर्धारण का एक गढ़ प्रयास अवश्य है। उनके इस प्रयास में जो कुछ त्रुटियाँ हुई हैं वे इस प्रकार हैं । ___ सर्वप्रथम, उनकी प्राथमिक कल्पना कि "स्याद्वाद के सातों भंगों को एक साथ लेने पर पूर्ण सत्ता का पूर्ण ज्ञान होता है" जैन तर्कशास्त्र के विपरीत है । जैन-आचार्य इस प्रकार के विचार का खण्डन करते हैं । सप्तभंगीतरंगिणी में यह प्रश्न उठाकर उस पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया गया है-"कदाचित् ऐसा कहो कि एक-एक पृथक वाक्य संपूर्ण अर्थों का प्रतिपादक नहीं है इसलिए विकलादेश है, सो ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि ऐसा मानने से उस प्रकार के सातों वाक्य भी विकलादेश हो जायेंगे। "स्यादस्ति" सत्त्व आदि सातों वाक्य मिलकर भी सम्पूर्ण अर्थों के प्रतिपादक सिद्ध नहीं हो सकते; क्योंकि सकल श्रुतज्ञान ही सम्पूर्ण अर्थों का प्रतिपादक है। इसी से सम्पूर्ण अर्थों का प्रतिपादक होने से मिलित सप्तभंगी 1. "Dr. R N. Mukerjee, Jain Logic of Seven Fold Predi cation, Printed in the Journal 'Mahavira Nirvana Mohotsawa Samiti', Bombay, 1977. १३ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy