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________________ १९२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या होगा या नहीं होगा। इस पुनरुक्ति को विपरीत क्रम से भी लिया जा सकता है। [A - ( A)] - [-( A)A ]=A · [ A - (-A)] v-(- A) • [A -( A)] सहार्पण को उपर्युक्त विधि से दोहराने पर उसका परिणाम प्रज्ञा को संकेतित करता है। इस प्रकार अव्यक्तव्यश्च अवक्तव्य हो जाता है निम्नलिखित उद्धरण जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एग जाणइ ।। एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ॥ सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।। में हर एक बात को उलट कर दोहराया गया है। इस प्रकार भाषा में सीमान्त प्रत्यय शुरू करने में जो क्रमिक दोष होता है उसे इस प्रकार से दूर किया जा सकता है। दृष्टान्तस्वरूप-जो सामान्य की दष्टि से अवक्तव्य था उसको विशेष की दृष्टि के अवक्तव्य के साथ जोड़ दिया गया और इस प्रकार भाषा को प्रज्ञा के जितना निकट पहुँच सकती थी पहुँचाया गया। सम्भाव्यता के समान दृष्टान्त यह है कि एक सिक्के का फेंकना। इसमें अवसर की प्राप्ति सिर यानी विधेयात्मक रूप में 1/2 और छ अर्थात् निषेधात्मक रूप में 1/2 होती है। क्योंकि वह एक दूसरे की संभावना को सीमित करती है अर्थात् जहाँ एक के होने की संभावना होती है वहीं दूसरे के न होने की भी संभावना होती है। यह प्रक्रिया 1/2 रूप में ही संभव है। इसलिए इन दोनों संभावनाओं के योग के द्वारा हम पूर्णता को प्राप्त करते हैं। इससे मिलती जुलती प्रक्रिया छः गुटकों को तीन-तीन गुटकों वाले दो भागों के पासे से होती है। इनका प्रतीकीकरण,एक विकल्प एवं तीनों प्रारंभिक आकारों के प्रतीकों के निर्धारण के द्वारा होता है । है, नहीं है और अवक्तव्य है-अ,ब और स । जबकि हम अ, ब, अ+ब, स, अ+स, ब+स, अ + ब+ स, स का एक आठ मूल्यात्मक तर्कशास्त्र को प्राप्त करते हैं । यहाँ एक विचारणीय विषय यह भी हो सकता है कि इसे हम तीन मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के रूप में क्यों नहीं ग्रहण करते हैं । इसका कारण यह है कि इसे द्वि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के रूप में नहीं प्राप्त किया जा सकता; क्योंकि इसके आठों भंगों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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