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। जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
वाक्य समुदाय सकलादेश है, यह मत परास्त हो गया, क्योंकि मिलित भी सप्तभंगी वाक्य की सम्पूर्ण अर्थों की प्रतिपादकता असिद्ध है। सत्त्व, असत्त्व आदि सप्त वाक्यों से एक तथा अनेक आदि सप्तवाक्य प्रतिपाद्य धर्मों का प्रतिपादन नहीं होता,बल्कि अनेक के साथ एक धर्म का प्रतिपादन होता है।' ___ इस प्रकार स्पष्ट है कि सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक साथ मिलकर पूर्णसत्ता का पूर्ण ज्ञान नहीं है। यद्यपि सर्वज्ञ का ज्ञान सकल पदार्थ का ग्राहक तो होता है किन्तु जब वह अपने सकलार्थग्राही ज्ञान को वाणी का विषय बनाता है तब उसका वह कथन भी सीमित और सापेक्ष ही होता है। कहा भी गया हैण णय विहण किंचि जिण वयणं ।
और भी देखिएयावन्ति वयण पाहा तावन्ति णय वाया। अर्थात् जिन वचन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो नय से रहित है। जो कछ भी कहा जाता है वह नय के द्वारा ही प्रकट होता है। इससे इस मत का भी निराश हो गया कि अवक्तव्य के विपरीत "वक्तव्य" ऐसा एक आठवाँ भंग बनता है। सप्तभंगी में सात ही भंग का विधान है आठवें का नहीं। इस प्रश्न पर कि "जैसे अवक्तव्यत्व के साथ योजित अस्तित्व नास्तित्व धर्मों का कथन करने में सर्वथा अशक्यत्व रूपता है । ऐसे ही वक्तव्यत्व भी धर्मान्तर से हो सकता है तो इस रीति से अष्टम वक्तव्यत्व रूप धर्म के होने से अष्टभंगी नय कहना उचित है न कि सप्तभंगी ? गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए कहा गया है कि "ऐसी शंका नहीं हो सकती; क्योंकि सामान्य रूप से वक्तव्यत्व भिन्न धर्म नहीं है और सत्त्व आदि रूप जो वक्तव्यत्व प्रथम भंगादि १. ननु-सकलार्थप्रतिपादकत्वाभावाद्विकलादेश इति चेन्न । तादृशवाक्यसप्तकस्यापि
विकलादेशत्वापत्तः, समुदितस्यापि सदादिवाक्यसप्तकस्य सकलार्थप्रतिपादकत्वाभावात्; सकलश्रुतस्यैव सकलार्थप्रतिपादकत्वात् । एतेन-सकलार्थप्रतिपादकत्वात्सप्तभङ्गीवाक्यं समुदित सकलादेशः, इति निरस्तम्; समुदितस्यापि तस्य सकलार्थप्रतिपादकत्वासिद्धेः, सदादिसप्तवाक्येन एकानेकादि-सप्तवाक्यप्रतिपाद्य धर्माणामप्रतिपादनात् ।
-सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० १९.
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