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________________ समकालीन तर्कशास्त्रों के सन्दर्भ में सप्तभंगी : एक मूल्यांकन १९५ के अन्तर्गत ही है ।' तात्पर्य यह है कि अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों का कथन अस्ति, नास्ति आदि भंगों के द्वारा होता है । अस्ति, नास्ति आदि भंग वक्तब्य रूप में ही स्वीकार किये गये हैं । इसलिए जब अस्ति, नास्ति आदि भंग वक्तव्यत्व रूप में स्वीकार किये गये हैं, तब वक्तव्यत्व रूप एक अन्य आठवें भंग को मानने की क्या आवश्यकता ? वस्तुतः वक्तव्यत्व रूप आठवाँ भग सप्तभंगी को स्वीकार्य नहीं है । इस प्रकार डॉ० मुकर्जी की आठवें भंग की कल्पना भी निरस्त हो जाती है । दूसरे, यदि आठवें भंग को इस रूप में स्वीकार किया जाय कि वह सर्वज्ञ के ज्ञान का सूचक है तो यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं हैं; क्योंकि सप्तभंगी ज्ञानरूप नहीं होकर वह मात्र कथन पद्धति है । वस्तु के सन्दर्भ में हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे सप्तभंगी रूपी कथन पद्धति के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं । इसलिए ज्ञान रूप सर्वज्ञता को सप्तभंगी में समाविष्ट नहीं कर सकते हैं । यद्यपि सर्वज्ञ भी वस्तु तत्त्व के विवेचन में इसी अस्ति नास्ति रूप कथन पद्धति का ही प्रयोग करता है और इसलिए जैन आचार्यों ने यह कहा है कि चाहे सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष भी हो किन्तु उसका कथन तो सापेक्ष ही होता है ( ण णय विहूण किचि जिणवणं) | पुनः सप्तभंगी की उपर्युक्त प्रतीकात्मक परिभाषा में जो नास्ति भंग को दोहरे निषेध के द्वारा विधेयात्मक पक्ष (अस्ति) के समान एक ही मूल्य और एक ही प्रतीक प्रदान किया गया है तथा अवक्तव्य भंग को निषेधात्मक मूल्य -C के द्वारा परिभाषित किया गया है उसमें कुछ सार्थकता है । यद्यपि अवक्तव्य भंग को पूर्वं भंगों का निषेधक होने से निषेधात्मक माना जा सकता है, किन्तु नास्ति भंग को अस्ति भंग के ही समान मूल्य और प्रतीक नहीं देना चाहिए, क्योंकि उससे पूरी बात स्पष्ट नहीं होती है। दूसरे, निषेध को हटाने पर नास्ति से पुनः अस्ति को ही प्राप्ति हो जाती है । जो कि ठीक नहीं है । इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि यदि उन्हें भिन्न-भिन्न ९. ननु — अवक्तव्यत्व यदि धर्मान्तर तर्हि वक्तव्यत्वमपि धर्मान्तरं प्राप्नोति, कथं सप्तविध एव धर्म: ? तथा चाष्टमस्य वक्तव्यत्वधर्मस्य सद्भावेन तेन सहाष्टभङ्गी स्यात्, न सप्तभङ्गी; इति चेन्न । सामान्येन वक्तव्यत्वस्यातिरिकस्याभावात् । सत्त्वादिरूपेण वक्तव्यत्वं तु प्रथमभंगादावेवान्तर्भूतम् । - सप्तभंगीतरङ्गिणी, पृ० १०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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