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जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या
A A-BB
A-B-C
चित्र 1
अब चित्र संख्या ५ को देखने से स्पष्ट हो जायेगा कि A, B, C, AB, A·–C, B. C और ABC का क्षेत्र अलग-अलग है । जिसके आधार पर सप्तभङ्गो के प्रत्येक भङ्ग की मूल्यात्मकता और उनके स्वतन्त्र अस्तित्व का निरूपण हो सकता है । यद्यपि सप्तभङ्गी का यह चित्रण वेन- डाइग्राम से तुलनीय नहीं है; क्योंकि यह उसके किसी भी सिद्धान्त के अन्तर्गत नहीं है, तथापि यह चित्रण सप्तभंगी की प्रमाणता को सिद्ध करने के लिए उपयुक्त है ।
A
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सप्तभंगी सप्तमूल्यात्मक है । इनके सातों भङ्गों के भिन्न-भिन्न मूल्यों को भिन्न-भिन्न प्रकार से चित्रित किया जा सकता है । अतः सप्तभङ्गी सप्तमूल्यात्मक है ।
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सप्तभङ्गी के सन्दर्भ में एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या सप्तभङ्गी व्याघातकता के दोष से दूषित है ? क्योंकि लगभग सभी पूर्वाचार्यों ने सप्तभंगी में इसी दोष को दिखाकर उसकी आलोचना की है । अतः इस प्रश्न पर थोड़ा गम्भीरतापूर्वक विचार कर लेना आवश्यक है । कुछ तर्कविदों की ऐसी मान्यता है कि सप्तभङ्गी व्याघातकता के दोष (फैलेसी आव कन्ट्राडिक्सन) से दूषित है; क्योंकि वह प्रथम भङ्ग अर्थात् स्यादस्त्येव घट: में जिस घट का विधान करती है, दूसरे भङ्ग अर्थात् स्यान्नास्त्येव घट: में उसी घट का प्रतिषेध कर देती है । तब एक ही वस्तु का प्रतिषेध और विधान दोनों एक साथ कैसे सम्भव हो सकता है । अतः सप्तभङ्गी व्याघातकता के दोष से दूषित है ।
परन्तु जैनाचार्यों के अनुसार यह आक्षेप उचित नहीं है; क्योंकि जैन तर्कशास्त्र जब प्रथम भङ्ग में स्यादस्त्येव घट: और दूसरे भङ्ग में स्यान्नास्त्येव घट: कहता है तो उसका आशय प्रथम भङ्ग में घट का विधान और दूसरे भङ्ग में घट का ही निषेध करना नहीं होता है । वस्तुतः जहाँ प्रथम भङ्ग में स्वचतुष्टय का विधान है, वहीं द्वितीय भङ्ग में परचतुष्टय का
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