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१२४ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या
इसलिए अवक्तव्य और अनुभय को एक ही बताना कथमपि संभव नहीं है। यद्यपि पं० दलसुख मालवणिया ने अनुभय और अवक्तव्य में साम्यता लाने की कोशिश की है। उन्होंने अनुभय और अवक्तव्य को एक दूसरे का पर्यायवाची सिद्ध किया है। इस संदर्भ में उनका निम्न कथन द्रष्टव्य है कि "अनुभय का तात्पर्य यह है कि वस्तु उभय रूप से वाच्य नहीं अर्थात् वह सत् रूप से व्याकरणीय नहीं और असद्रूप से भी व्याकरणीय नहीं। अतएव अनुभय का दूसरा पर्याय अवक्तव्य हो जाता है।"' पुनः उन्होंने इस अवक्तव्य भङ्ग की प्राचीनता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि "दार्शनिक इतिहास में उक्त सापेक्ष अवक्तव्यत्व नया नहीं है । ऋग्वेद के ऋषि ने जगत् के आदि कारण को सदूप से और असदूप से अवाच्य माना, क्योंकि उनके सामने दो ही पक्ष थे। जबकि माण्डूक्य ने चतुर्थपाद आत्मा को अन्तः प्रज्ञः (विधि), बहिष्प्रज्ञः (निषेध) और उभय प्रज्ञः (उभय) इन तीनों रूप से अवाच्य माना, क्योंकि उनके सामने आत्मा के उक्त तीनों प्रकार थे। किन्तु माध्यमिक दर्शन के अग्रदूत नागार्जुन ने वस्तु को चतुकोटिविनिर्मुक्त कहकर अवाच्य माना; क्योंकि उनके सामने विधि, निषेध, उभय और अनुभय ये चार पक्ष थे। इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता दार्शनिक इतिहास में प्रसिद्ध ही है ।"२ ___ किन्तु अवक्तव्य की अनुभय से इस प्रकार साम्यता बैठाना ठीक नहीं है; क्योंकि अवक्तव्य अनुभय नहीं है। वह तो उभय पक्ष का ही सहार्पण है। अवक्तव्य का अर्थ ही है उभय पक्ष को स्वीकार करते हुए भी उनको युगपद् रूप से अभिव्यक्ति असंभव मानना। जबकि अनुभय का अर्थ हैवस्तु न अस्ति रूप है, न नास्ति रूप और न तो उभय रूप ही है। अतः अवक्तव्य और अनुभय के अर्थ में साम्यता नहीं है । अवक्तव्य मात्र भाषायी सीमा को सूचित करता है। जबकि अनुभय सत्ता के तात्विक स्वरूप को सूचित करता है। आदरणीय मालवणिया जी ने अनुभय का जो अर्थ किया है जैन दृष्टिकोण से उसकी व्याख्या का प्रयास तो अवश्य है किन्तु इस प्रयास में वह अपने मूल अर्थ से भिन्न हो जाता है। इसलिए अवक्तव्य को अनुभय का पर्यायवाची नहीं कहा जा सकता है ।
१. आगम युग का जैन-दर्शन, पृ० ९५ । २. वही, पृ० ९६ ।
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