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________________ जैन न्याय में सप्तभंगी १२५ मुख्य बात यह है कि वस्तु के विभिन्न गुण-धर्मों अथवा किसी एक गुण-धर्म का विधि-निषेध एक ही प्रकथन के द्वारा सम्भव नहीं है । प्रकथन सदैव क्रमिक ही होता है युगपत् नहीं। आधुनिक तर्कशास्त्र यह मानता है कि उद्देश्य के जितने विधेय होते हैं वे सब अलग-अलग प्रकथन की रचना करते हैं, और वे सभी प्रकथन या तो विधेयात्मक होते हैं या निषेधात्मक किन्तु युगपत् नहीं। वस्तुतः विधि और निषेध रूप प्रकथन स्वतन्त्र होते है। इसीलिए आधुनिक तर्कशास्त्र तर्कवाक्यों को विधेयात्मक और निषेधात्मक दो वर्गों में विभक्त करता है। इसी बात को दोहराते हुए जैन-दर्शन भी कहता है कि वस्तु के अनन्त पक्ष या अनन्त विधेय हैं । इसलिए उसके सम्बन्ध में अनन्त प्रकथन किये जा सकते हैं। वे सभी प्रकथन या तो विधिमूलक होते हैं या निषेध मूलक । किन्तु ज्यों ही विधि और निषेध को युगपत् रूप से कहने की बात आती है त्यों ही उसे अवक्तव्य कहना पड़ता है। अवक्तव्य का महत्त्व इसीलिए है कि वह वस्तु की सापेक्ष वाच्यता और सापेक्ष अवाच्यता का परिचायक है तथा भाषायी अभिव्यक्ति की सीमा को निर्धारित करता है। वह पूर्व के तीनों भङ्गों से इसलिए भिन्न है कि जहाँ प्रथम तीन भङ्ग वस्तु की सापेक्ष वाच्यता को लेकर अस्तिरूप से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं, वहाँ यह भङ्ग एक ही वाक्य में और समग्रतया वस्तु की अवाच्यता को सूचित करता है। इसलिए यह पूर्वोक्त तीनों भङ्गों से भिन्न और नवीन हैं। _ इसी प्रकार अवक्तव्य को अद्वैतवेदान्त की अनिर्वचनीयता भी नहीं कह सकते हैं-जिस प्रकार जैन-दर्शन में वस्तु के समग्र स्वरूप को युगपततः अवाच्य या अवर्णनीय कहा गया है। ठीक उसी प्रकार सत्ता के सन्दर्भ में अद्वैतवेदान्ती शङ्कराचार्य का भी मत है। शङ्कराचार्य ने भी यह माना है कि सत्, असत्, एक और अनेक, गुणवत् और अगुणवत्, सविशेष और निविशेष, सबीज और निर्बीज, साकार और निराकार, शून्य और अशुन्य आदि सभी वल्पनायें यहाँ तक कि सत्, चित्, आनन्द आदि लक्षण भी उसकी (परमतत्त्व की) विवेचना में असमर्थ ही है; क्योंकि वह तत्त्व, वाणी और बुद्धि के समस्त प्रत्ययों से परे है; उनकी सीमा से बाहर है। इसलिए उपनिषदों ने उसे "नेति" नेति" कहकर परिभाषित किया है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी सत्ता ही नहीं है। उसकी सत्ता है किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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