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१२६ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय को आधुनिक व्याख्या उस सत्ता का विवेचन भावात्मक शब्दों के द्वारा सम्भव नहीं है। इसलिए वह अनिर्वचनीय है। । नागार्जुन ने सत्ता के स्वरूप-विवेचन में चतुष्कोटि न्याय की स्थापना की थी। परन्तु शंकर ने उस सन्दर्भ में इस चतुष्कोटि न्याय का भी निषेध करके कहा कि जब चरमतत्त्व को मानसिक प्रत्ययों में बाँधा हो नहीं जा सकता और वाणी से उसकी अभिव्यक्ति सम्भव ही नहीं है तब उसे चतुकोटि न्याय का विषय कैसे बनाया जा सकता है ? अतः वह इस चतुकोटि न्याय से भी परे है। इसका आशय यह है कि उस तत्त्व के सन्दर्भ में किसी प्रकार भी कुछ कहना संभव नहीं है। किन्तु जैन मत इसके विपरीत है । जैन विचारणा के अनुसार तत्त्व विवेच्य अवश्य है किन्तु क्रमशः, अक्रमशः नहीं। यद्यपि तत्त्व अनन्त धर्मात्मक है और उसके उस अनन्त धर्म का ज्ञान साधारण मानव के लिए असम्भव है। जिसके फलस्वरूप एक साधारण मानव तत्व के समग्र स्वरूप के विवेचन में असमर्थ है। किन्तु सर्वज्ञ को तो उसका पूर्णतः ज्ञान होता ही है। इसलिए वह तो उसके विवेचन में समर्थ ही होगा। लेकिन जब तत्त्व के उन गुण-धर्मों को युगपततः कहने की बात आती है तो वहाँ सर्वज्ञ भी असमर्थ ही हो जाता है। वस्तुतः वह भी उसे अवक्तव्य या अवाच्य ही कहता है । इस प्रकार जहाँ अद्वैतवेदान्त तत्त्व की अनिर्वचनीयता का कारण उसके स्वरूप को मानता है वहाँ जैन-धारणा अवक्तव्यता का कारण भाषा की अक्षमता को मानती है। अस्तु, अद्वैत-वेदान्त सम्मत अनिर्वचनीय और जैन-सम्मत अवक्तव्य को एक कहना बहुत बड़ी भूल है। इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। १. अद्वैत वेदान्त सम्मत अनिर्वचनीयता विषयोगत है; क्योंकि वह
विषयी अर्थात् चरमतत्त्व के स्वरूप को ही अनिर्वचनीय कहती है जबकि जैन-अवक्तव्यता भावात्मक है; क्योंकि यह युगपत्
कथन में भाषा की असमर्थता को प्रकट करता है। २. अनिर्वचनीयता निरपेक्ष है, क्योंकि यह स्वीकार करती है कि
तत्त्व कथमपि विवेच्य नहीं है। किन्तु अवक्तव्य भंग सापेक्ष है।
यह तत्त्व को सापेक्षतः वाच्य और सापेक्षतः अवाच्य बताता है। ३. अनिर्वचनीयता एक निषेधात्मक दृष्टिकोण है; क्योंकि यह उसके
निषेध के अतिरिक्त उस सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहती है ।
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