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जैन न्याय में सप्तभंगी
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जबकि अवक्तव्य किसी सीमा तक निषेध रूप है और किसी सीमा तक विधेय रूप भी है; क्योंकि वह तत्त्व को अवक्तव्य के साथ ही वक्तव्य भी कहता है ।
किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जैन दर्शन में अवक्तव्यता ( अवाच्यता) को भी दो वर्गों में विभक्त किया गया है
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(१) सापेक्ष अवक्तव्यता (२) निरपेक्ष अवक्तव्यता
निरपेक्ष अवक्तव्यता वस्तु को स्वरूपतः अनिर्वचनीय या अवाच्य मानती है । उसके अनुसार भाषा सत्ता को अभिव्यक्त करने में कथमपि समर्थ नहीं है । जबकि सापेक्ष अवक्तव्यता सत्ता को किसी सीमा तक वाच्य भी मानती है । वह केवल यह बताती है कि सत्ता का क्रमपूर्वक प्रतिपादन सम्भव है युगपत् रूप से नहीं । सत्ता के विविध पहलुओं का पृथक्-पृथक् विवेचन तो सम्भव है । किन्तु समग्र सत्ता का विवेचन भाषा की अपनी सीमा के कारण सम्भव नहीं है |
इस प्रकार उपनिषद् काल तक प्रकाश में आये हुए चारों पक्ष निम्नलिखित हैं :
(१) सत् (विधिपक्ष ),
(२) असत् (निषेधपक्ष ), (३) सदसत् ( उभयपक्ष ), (४) अनुभव (अवक्तव्यपक्ष ) |
तत्त्व के विषय में उपर्युक्त चारों पक्षों का उपनिषद् में ही प्रचलित नहीं था, अपितु इनका
प्रयोग मात्र ऋग्वेद और इसी अर्थ में स्पष्ट प्रयोग बौद्ध त्रिपिटक ग्रन्थ में भी अवलोकनीय है । बुद्ध ने लोक की सान्तताअनन्तता, नित्यता- अनित्यता आदि प्रश्नों के विषय में उसे अव्याकृत कहा था । उन अव्याकृत प्रश्नों की कथन शैली भी वैसी ही थी जैसी कि उपनिषद् काल तक स्थिर हुए चारों पक्षों की थी। जिसकी स्पष्टता अधोलिखित बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नों से हो जाती है :
(१) होति तथागतो परंमरणाति ? (२) न होति तथागतो परंमरणाति ?
(३) होति च न होति च तथागतो परंमरणाति ?
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