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जैन न्याय में सप्तभंगी
१२३ सर्वश्रेष्ठ होने से वरणीय और शाश्वता के कारण सबके लिए प्रार्थनीय है। इस समन्वयात्मक प्रवृत्ति के द्वारा एक अन्य पक्ष का जन्म हुआ जिसे सदसत् (उभय पक्ष) कहा जाता है ।
इस प्रकार उपनिषद् काल तक सत्, असत्, सदसत् ( उभय ) और न सत्नासत् (अनुभय) ये चार पक्ष प्रकाश में आ चुके थे। जो कि सप्तभंगी के मूल भंग कहे जाते हैं । किन्तु विचारणीय विषय यह है कि जैन आचार्यों ने उपर्युक्त चार भङ्गों में से तीन भङ्गों-सत्, असत्, सदसत् को ज्यों का त्यों तो स्वीकार कर लिया। किन्तु चतुर्थ यानी न सत्नासत् (अनुभयपक्ष) को उसी रूप में स्वीकार न करके उसमें थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया है। इसीलिए उसे जैन-दर्शन में अनुभयपक्ष (भङ्ग) न कहकर अवक्तव्य भङ्ग कहा गया है । वस्तुतः, अनुभय और अवक्तव्य पक्ष को एक ही नहीं कहना चाहिये । अनुभय और अवक्तव्य में बहुत बड़ा अन्तर है । जहाँ अनुभय पक्ष निषेधात्मक दृष्टिकोण है वहीं अवक्तव्य पक्ष विधायक दृष्टिकोण है। ___ अनुभय की मूलभूत दृष्टि निषेधात्मक है और अनुभय को पूर्व के दोनों और कभी-कभी तीनों भङ्गों (सत्, असत्, उभय) का निषेधक माना जाता है । जबकि अवक्तव्य तीनों भंगों का निषेधक नहीं है। अपितु वह उपर्युक्त तीनों भङ्गों की स्वीकृति के साथ-साथ एक ही वाक्य में वस्तु की वाच्यता को असम्भव बताता है। किन्तु अवक्तव्य भी निरपेक्ष नहीं है, क्योंकि जैन-दर्शन की मान्यता यह है कि वस्तु पूर्णतः या निरपेक्षतः अवक्तव्य नहीं है । वह कथञ्चित् वक्तव्य भी है और कथञ्चित् अवक्तव्य है। इसका आशय यह है कि उसके समग्र स्वरूप का निर्वचन क्रमपूर्वक हो सम्भव है युगपत् रूप से नहीं। यदि हमें एक ही प्रकथन में उसे कहना है तो उसे अवक्तव्य ही कहना होगा। लेकिन क्रमपूर्वक उसके एक-एक धर्मका विधान या निषेध किया ही जा सकता है। अतः अवक्तव्य का अर्थ हुआ वस्तु क्रमपूर्वक वक्तव्य है और युगपत् रूप से या एक साथ अवक्तव्य है । ___ वस्तुतः वेदान्त और बौद्ध शून्यवाद का जो चतुष्कोटि न्याय है उसमें
और सप्तभङ्गी के प्रथम चार भङ्गों में जो अन्तर है, वह निषेध मुख या विधिमुख को लेकर हैं; क्योंकि चतुष्कोटि न्याय न सत्, नासत्, न उभय और न अनुभय के रूप में होता है। जबकि सप्तभङ्गी के प्रथम चार भङ्ग का रूप होगा सापेक्ष सत्, सापेक्ष असत्, सापेक्ष उभय और सापेक्ष अवक्तव्य ।
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